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________________ 184 / जैन धर्म और दर्शन नही रहता । इसे निम्न उदाहरण से समझा जा सकता है - मान लीजिए आप ऐसे जगल में फंस गए जहा कोई मार्ग नही सूझता हो। सोचकर निकले किसी गाव तक पहुँचने का, पर बीच में ही भटक गए। अनेकों पगडडिया फूटी हैं। अममजस की स्थिति में खडे हैं कि किधर चलें। तभी देखते हैं कि सामने से घुटनों तक मैली कुचैली धोती पहने अर्द्धनग्न बदन, बिखरे बालो वाला काला-कलूटा भीमकाय व्यक्ति चला आ रहा है । देखते ही मन भयाक्रान्त हो उठता है। फिर भी जैसे-तैसे साहस बटोरकर उससे पूछा भी, तो उसने ऐसा कर्कश उत्तर दिया मानो खाने को ही दौडता हो। 'रास्ता भूल गया है मार्ग नही जानता था तो क्यों आया यहा पर ? तेरे बाप का नौकर हू क्या ? चले जा अपनी दायी ओर ।' आप ही बतायें उसके बताए मार्ग पर आपके कदम कभी भी बढेगे। आप रात्रि वही बिताने को तैयार हो सकते हैं। मगर उस व्यक्ति के द्वारा इगित दिशा पर एक कदम भी चलने का साहस नही कर सकेंगे। अब आप निराश खडे हैं। तभी देखते है कि सामने से भव्य आकृति वाला मनुष्य चला आ रहा है । धोती दुपट्टा पहने, हाथ में कमडल लिए, माथे पर चदन का तिलक लगाए मख से प्रभु के गीत गुनगनाता वह दूर से ही कोई भद्र पुरुष प्रतीत हो रहा है। पास आने पर आपने उन्हें नमस्कार किया. प्रत्युत्तर में उसने भी नमस्कार किया। आपके द्वारा मार्ग पूछने पर उन्होंने कहा, 'बडे भाग्यवान हो पथिक,जो अब तक सुरक्षित बचे हो । यह वन ही ऐसा है। यहाँ अनेकों प्राणी प्रतिदिन भटक जाते है। खैर, घबराने की कोई बात नही अभी दिन ढलने में समय शेष है तुम्हारा गाव भी ज्यादा दूर नही । दायी ओर जाने वाली इस पगडडी से निकल जाओ। करीब एक मील आगे जाने पर एक नाला पडेगा उसे पार करके उसके दायी ओर मुड जाना करीब आधा मील और चलोगे तो तुम्हे खेत दिखाई पडने लगेगे। उन खेतो के बगल से बायी ओर एक पगडडी जाती है,उसे पकडकर तुम सीधे चले जाना,करीब एक मील चलने पर तुम अपने गाव पहुच जाओगे। कल्पना कीजिए क्या इस व्यक्ति की बात पर आपको विश्वास नही होगा? सहज ही आप उसकी बात का विश्वास कर लेगे तथा उसे धन्यवाद ज्ञापित करते हुये आपके कदम अनायास उस दिशा मे बढ जाएगे। कही तो दोनों ने एक ही बात थी। पर पहले व्यक्ति के अप्रमाणिक होने से उसके वचनो पर विश्वास नही हुआ तथा दूसरे की प्रमाणिकता ने सहज ही उस पर विश्वास उत्पन्न करा दिया। इसलिए कहा गया है कि वक्ता की प्रमाणिकता से वचनो मे प्रमाणिकता आती है। सत्य शास्त्र आप्त प्रणीत होने के साथ-साथ उसमें कुछ और भी विशेषताए होती हैं। यथा वह पूर्वापर विरोध से रहित हो। दूसरो की युक्तियों एव तों से उसके मूलभूत सिद्धान्त अखण्डनीय हो । प्राणी-मात्र का हितकारी हो । प्रयोजन भूत बातों का कथन हो तथा वह उन्मार्ग का नाश करने वाला हो । तभी वह सत्य शास्त्र की कोटि में आ सकता है । इसके विपरीत रागीद्वेषी व्यक्तियों द्वारा लिखे जाने वाले शास्त्र कशास्त्र की कोटि में आते हैं। 1 शाति पथ-प्रदर्शन 2 पूर्वापर विरुद्धार्दै व्यपेतो दोष सहते घोतक. सर्व भावाना आप्त व्याहतिरागम। धवल पुस्तक 1/966
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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