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________________ 182 / जैन धर्म और दर्शन 4. आत्मा का श्रद्धान करना इन लक्षणों में तत्त्वार्थ श्रद्धान रूप लक्षण सभी में दृष्टिगोचर होता है। क्योंकि जीव की शुद्ध अवस्था ही देव है। सच्चे गुरु तो साक्षात् संवर निर्जरा की प्रतिमूर्ति हैं। शास्त्र रत्नत्रय रूप सच्चे धर्म का अधिष्ठान है । सच्चा धर्म अजीव आस्रव बंध इन तत्वों से हटकर जीव संवर निर्जरा इन तत्त्वों की ओर झुकने का नाम है। इसका फल मोक्ष है। अतः सच्चे देव शास्त्र व गुरु की श्रद्धा व सात तत्त्वों की श्रद्धा बात एक ही है। जीव-अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं। जिनमें जीव स्व तत्त्व है। अजीव, आस्रव और बंध 'पर' हैं । संवर और निर्जरा स्व के साधन हैं। तथा मोक्ष जीव का स्वाभाविक रूप है। अतः स्व पर का श्रद्धान रूप लक्षण भी इन सात तत्व वाले लक्षण में समाहित हो जाता है। आत्मा का श्रद्धान रूप लक्षण का अर्थ है। आत्मा के समस्त अजीव, आस्रव,बंधादि,वैभाविक भावों से रहित अवस्था का श्रद्धान करना । उसमें भी सात तत्त्वों वाला लक्षण गर्मित हो जाता है। सम्यक् दर्शन के साधन सम्यक् दर्शन के होते ही ऐसी भेदक दृष्टि प्राप्त हो जाती है जिससे तत्त्वों की श्रद्धापूर्वक शरीर से आत्मा की पृथक् मत्ता का भान होने लगता है । आत्मसत्ता की आस्था और स्वरूप विषयक दृढ़ निश्चय हो जाने से मैं कौन हूं,क्या हूं, कैसा हूं?, इसका प्रतिभास होने लगता है। जड़-चेतन की इस पारखी दृष्टि को भेद विज्ञान भी कहते हैं । जब तक ऐसी दृष्टि प्राप्त नहीं होती तब तक यह जीव मिथ्यात्वी कहलाता है। अनादि काल से यह जीव मिथ्यात्व से ग्रसित है। शरीर की उत्पत्ति से ही अपनी उत्पत्ति तथा शरीर के विनाश को ही अपना विनाश समझता आ रहा है। इस देहात्म बोध के छूटने पर ही सम्यक् दर्शन का प्रादुर्भाव होता हो आत्मबोध की इस प्रक्रिया को ग्रंथि भेद कहते हैं जो सांसारिक प्रवाह में कभी किसी समय पर विविध कारणों के मिलने पर उत्पन्न होता है। किन्हीं जीवों को यह अकस्मात् घर्षण घोलन न्याय से प्राप्त हो जाता है। जिस प्रकार प्रवाह पतित पाषाण खंडों का परस्पर घिसते रहने से नाना प्रकार के आकार यहां तक कि देव मूर्ति बन जाती है।) कुछ जीवों को विशिष्ट निमित्त के मिलने से सम्यक दर्शन की प्राप्ति हो जाती है। निम्न साधन सम्यक् दर्शन प्राप्ति के प्रमुख हेतु।' 1. जातिस्मरण-पूर्व के जन्मों का स्मरण हो जाने से 2. वेदनानुभव तीव्र दुःख संवेदन के कारण 3. धर्मश्रवण-निग्रंथ मुनियों एवं सत् शास्त्रों के श्रवण से उत्पन्न तत्त्व बोध के कारण 4. जिन बिंब दर्शन–वीतरागी निग्रंथ मुनियों तथा जिनबिंब के दर्शन से 5. जिनमहिमा दर्शन-धर्म महोत्सवों के दर्शन से यह सम्यक् दर्शन के बाह्य हेतु है। सम्यक्त्व का अंतरंग हेतु दर्शन मोहनीय और 1.पर द्रव्यनते भिन्न आपमे रुचि सम्यक्त्व मला है। 2 जीवाजीवानव वध सवर निर्बरा मोक्षास्तत्तवम् । 3. सर्वाक्सिडिपृ. 26 -त. सू. 14
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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