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________________ मोक्ष के साधन / 181 इसलिए प्राथमिक भूमिका में व्यवहार रत्नत्रय का आलंबन लिया जाता है । यह व्यवहार रत्नत्रय ही आगे चलकर निश्चय में ढल जाता है। सम्यक् दर्शन इन तीनों में सम्यक् दर्शन,ज्ञान की उत्पत्ति साथ-साथ होती है। जैसे दीपक का प्रकाश और प्रताप साथ-साथ होता है वैसे ही ज्ञान और दर्शन की उत्पत्ति साथ-साथ होती है; क्योंकि ज्ञान हमेशा मान्यता (श्रद्धा) का अनुसरण करता है। हमारी जैसी मान्यता होती है,ज्ञान उसी रूप में ढल जाता है। मान्यता यदि मिथ्या होती है तो ज्ञान भी मिथ्या कहलाता है । मान्यता के सम्यक् होते ही ज्ञान सम्यक् हो जाता है । चारित्र के साथ दोनों प्रकार की संभावनाएं हैं । यह सम्यक् दर्शन और ज्ञान के साथ भी हो सकता है,तथा कुछ काल बाद भी । कितु चारित्र कभी भी ज्ञान और दर्शन का साथ नहीं छोड़ता इसकी उत्पत्ति कभी भी ज्ञान और दर्शन के अभाव में नहीं होती। सम्यक्त्व का महत्त्व यद्यपि सम्यक् दर्शन ज्ञान और चारित्र को समष्टि ही मोक्षमार्ग है। फिर भी सम्यक्त्व का विशेष महत्त्व है। ज्ञान और चारित्र में समीचीनता सम्यक्तव से ही आती है।' सम्यक्त्व की बुनियाद पर ही साधना का महल टिका है। इसे मोक्ष महल की पहली सीढ़ी कहा गया है। सम्यक्त्व के डगर पर पैर रखकर ही हम रत्नत्रय के महल में प्रवेश कर सकते हैं। नदी को पार करने में नाव और पतवार से नाविक का महत्त्व कहीं अधिक है। नाविक ही नाव को सही दिशा में ले जाता है। नाविक के बिना नाव अपने निर्धारित लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकती। उसी तरह चारित्र की नाव को ज्ञान की पतवार से सम्यक्त्व खेवटिया बनकर खेता है। इसलिए ज्ञान और चारित्र से इसकी श्रेष्ठता बताते हुए इसे कर्णधार कहा गया है।' वस्तुतः जैसे अंक के अभाव में शून्य का कोई महत्त्व नहीं रहता वैसे ही सम्यक्त्व के अभाव में ज्ञान और चारित्र का अभाव नहीं रहता है ।। सम्यक्त्व का स्वरूप सम्यक् दर्शन का विभिन्न दृष्टियों से विभिन्न लक्षण बताए हैं। यथा ___1. परमार्थभूत, देव, शास्त्र और गुरु पर तीन मूढ़ता और आठ मदों से रहित तथा आठ अंगों से युक्त होकर श्रद्धा करना। 2. तत्त्वों पर श्रद्धा करना 3. स्वपर का श्रद्धा न करना -र. सा. 47 1 सर्वा, सि प्र5 2. तव 1.1.69 3. सम्मविणा सण्याणं सच्चारितं ण होईणियमेण । तो रयणत्तय मज्झे सम्मगुणुकिट्ठिमिदि जिणुद्दिट्ठ ॥ 4. दर्शन पाहुड 21 5. रकबा 31 6.रका श्रा3 7. तसू22 8. मोक्षमार्ग प्रकाशक
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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