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________________ 174 / जैन धर्म और दर्शन अनंत और विच्छेदरहित होता है। संसार के सुख, विषयों की पूर्ति, वेदना का अभाव और पुण्य कर्मों के इष्ट फल-रूप है। जबकि मोक्ष-सुख कर्म क्लेश के क्षय से उत्पन्न परम सुखरूप है। सारे लोक में ऐसा कोई पदार्थ नहीं है, जिसकी उपमा सिद्धों के सुख के लिए दी जा सके, वह सुख अनुपम है। संसारी जीवों का सुख इंद्रियाधीन होने के साथ बाधा-सहित है जबकि सिद्धों का सुख-अतीन्द्रिय और बाधारहित है। उनके उस सुख को अव्याबाध-सुख कहते हैं। (कोई-कोई सिद्धों के सुख को सुषुप्तावस्था के समान मानते हैं। पर उनकी यह मान्यता ठीक नहीं है; क्योंकि उनमें सुखानुभव रूप क्रिया होती है, जबकि सुषुप्तावस्था श्रम, क्लम, मद, व्याधि आदि निमित्तों से उत्पन्न होती है, और वह मोह विकार रूप है। अन्य दर्शनों में मोक्ष जैन दर्शन में निरूपित मोक्ष के स्वरूप को हमने समझा। आइए, अब एक दृष्टि इतर दर्शनों में मान्य मोक्ष पर भी डाल लें। 1. बौद्ध : बौद्ध-दर्शन में दीपक के बुझने की तरह, चित्त संतति के अभाव को मोक्ष माना गया है। इससे उच्छेदवाद का प्रसंग आता है । 2. न्याय वैशेषिक : न्याय वैशेषिक के अनुसार सुख-दुःख,चेतना आदि सभी आत्मा के आगंतुक गुण हैं। मुक्तात्माओं के शरीर विच्छेद के साथ-साथ आगंतुक गुणों का भी अभाव हो जाता है। उनका मानना है कि सुषप्तावस्था जिस प्रकार सुख-दुःख से रहित अवस्था होती है, उसी प्रकार मोक्षावस्था में भी आत्मा सुख-दुःख से अतीत होता है। नींद की अवस्था काल्पनिक होती है परंतु मोक्षावस्था स्थायी होती है। 3. सांख्य : सांख्य-दर्शन के अनुसार मूल प्रकृति के निवृत्त हो जाने पर पुरुष ऐकान्तिक और आत्यन्तिक रूप से कैवल्य की प्राप्ति कर लेता है। इस प्रकार प्रकृति से निवृत्त होना ही मोक्ष है। मोक्ष की अवस्था में आत्मा को आनंद की अनुभूति नहीं होती क्योंकि वे पुरुष को स्वभावतः मुक्त और त्रिगुणातीत मानते हैं।' 4. मीमांसा : मीमांसा दर्शन के अनुसार चैतन्य रहित अवस्था ही आत्मा की स्वाभाविक अवस्था है, इस दृष्टि से मोक्ष सुख-दुःख से परे है। इस अवस्था में न चैतन्य रहता है,न ही आनंद। 5. अद्वैत-वेदांत : न्याय वैशेषिक और मीमांसा दर्शनों के विपरीत अद्वैत-वेदांत में 1 ता. वा 10/9/14 पर उड़त, पृ727 2. अदिसय माद समुत्थ विसयातीद अणोवम अणत । अव्वुच्छित्र च सुह सुद्धवजोगो य सिद्धाण । ध पु. ग.,46 3 वही 4 षड्दर्शन सम्मुचय श्लोक 7 5. सुपतस्य स्वप्न दर्शने क्लेशाभावादपवर्गः।-न्याय सू. 4.1.63 6 साख्य कारिका 62 7. वही, 111 8. भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ.22
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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