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________________ मोक्ष आत्मा को परम अवस्था । 173 न्यूनाधिकता तथा सर्वथा विनाश होने का प्रश्न ही नहीं उठता। जीव राशि अनंत है, अतः उनके मुक्त होते रहने पर भी ससार के खाली होने का प्रश्न ही नहीं उठता।' मुक्तात्मा का आकार कुछ भारतीय दार्शनिक मुक्तात्मा को निराकार अर्थात् आकृति शून्य मानते हैं। जैन दर्शन उनके उक्त मत से सहमत नहीं है। जैन दर्शन में आत्मा को निराकार मानते हुए भी उस आकृति शून्य नहीं माना गया है। इंद्रियों से दिखाई नहीं पड़ने के कारण ही मुक्तात्मा को जैन दर्शन में निराकार कहा गया है। इसलिए जैन दर्शन में जीव निराकार होते हुए भी आकृति-शून्य नहीं है।' इस दृष्टि से मुक्त-जीवों का आकार मुक्त हुए शरीर से कुछ कम होता है। मुक्न जीव के अंतिम शरीर से कुछ कम होने का कारण यह है कि नाक, कान, नाखन आदिक अंगोपांग खोखले होते हैं। अर्थात उनमें आत्म-प्रदेश नहीं होते। कहा भी हैं-मुक्त शरीर के कुछ खोखले अंगों में आत्म प्रदेश नहीं होते। मुक्तात्मा छिद्ररहित होने के कारण अपने पहले के शरीर से कुछ कम (लगभग 1/3 कम), मोमरहित मांचे के बीच के आकार के अथवा छाया के प्रतिबिब (परछाई) की तरह आकार वाले होते हैं। इसलिए जैन दर्शन मे जीवात्मा को कथचित निराकार और कचित् साकार कहा गया है। मोक्ष का सुख न्याय-वैशेषिक दार्शनिक सिद्धों में सुख का अभाव मानते है। उनके अनुसार बुद्धि, इच्छा, मख.द'खादिक आत्मिक गणों का अभाव हो जाना ही मक्ति है। वे सिर्फ दुःखाभाव को ही मुक्त जीवों का सुख मानते हैं। इस प्रकार तो मुक्त जीव भी पाषाण की तरह सुख के अनुभव से रहित हो जाएंगे। मिद्धों का मुख इस प्रकार का नहीं होता है क्योंकि इस प्रकार के सर्वविनाशी निरर्थक मोक्ष के लिए मोक्षार्थी-तपश्चरण, योग,माधना, ममाधि आदि कार्य क्यों करेगा? इसी से खिन्न होकर कुछ लोगों ने वैशेषिकों के मोक्ष का उपहास करते हुए कहा है-"गौतम ऋषि वैशेषिकों की मुक्ति की अपेक्षा वृदावन में सियार होकर रहना अच्छा समझते हैं।"6 जैन दर्शन मान्य मुक्तात्माओं का सुख मात्र दुखाभाव रूप ही नहीं होता, अपितु मुक्तात्माओं का मुख, अतिशय रूप आत्मा से उत्पन्न हुआ, विषयों मे अतीत अनुपम, 1 5 स टी गा 51 2 किचूणा चरमदेहदो मिद्धा । द्र स गा 51 और भी देखें नि प 9/10 3 मा सि 10/4 पृ 371 4 (अ) किचूणा चरमदेहदो सिद्धा। द्र स 14 (ब) वही, द्र स टी गा 14 5 , म टी 37 6 वर वृदावने रम्ये क्रोष्टृत्वमविवाच्छितम् । न तु वैशेषिकी मुक्ति गौतमो गन्तुमिच्छति ॥ स्यावाद मजरी, पृ 63
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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