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________________ 12 / जैन धर्म और दर्शन को उन्होंने सुगम बोधगम्य बना दिया है। प्रामाणिकता की दृष्टि से उन्होंने यथास्थान संदर्भ भी दे दिए हैं। पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर महाराज के सभी अंतेवासी, जैनधर्म दर्शन और साहित्य के सूक्ष्म अध्ययन में अनवरत संलग्न रहते हैं और वाणी तथा लेखनी के द्वारा जिन सिद्धांतों को सरल से सरल भाषा में लोक-कल्याणार्थ प्रतिपादित करते रहते हैं। मुनि श्री प्रमाणसागर जी का यह प्रयास भी उसी दिशा का है। अपने अध्ययन, चिंतन और मनन के द्वारा गूढ़ विषयों को सहज रूप में प्रस्तुत करने की कला में वह निष्णात है। उसका उत्कृष्ट नमूना यह पुस्तक है। इससे सामान्य पाठक वर्ग को तो लाभ होगा ही, प्रबुद्ध वर्ग को भी समाधान होगा। यह पुस्तक वर्तमान समय के एक बड़े अभाव की पूर्ति करती है। आज हमारा देश बड़ी तेजी से भौतिक मूल्यों का उपासक बन रहा है। नैतिक मूल्य आहत हो रहे हैं। मानव-जीवन का चरम लक्ष्य आज विस्मृत हो गया है। मानव भटक रहा है। इस संक्रात काल में, संकट काल में, यह पुस्तक दीप-स्तंभ का काम करती है। यह उस मार्ग को दर्शाती है,जो लोक कल्याण का मार्ग है,जो समाज की सुप्त चेतना को जागृत करता है। ऐसी उद्बोधक कृति सुलभ करने के लिए, मैं विद्वान लेखक के प्रति हृदय से श्रद्धावनत हूं और आशा करता हूं कि इस कृति का सभी वर्गों और क्षेत्रों में हार्दिक स्वागत होगा। 7/8, दरियागज - यशपाल जैन नई दिल्ली-110002 26 जनवरी, 1992
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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