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________________ कर्म मुक्ति के उपाय -सवर-निर्जरा) / 163 प्रशस्त और अप्रशस्त,ये दो भेद किये गये है। आर्तध्यान-आर्त और रौद्र ध्यान अप्रशस्त ध्यान हैं। आर्त का अर्थ होता है 'पीडा', दख' । इष्ट की प्राप्ति के लिए, उसके सयोग के लिए, अनिष्ट के परिहार के लिए, शरीरादि से उत्पन्न वेदना के प्रतिकार के लिए तथा तृष्णावश आगामी भवो मे भोगो की प्राप्ति के लिए जो विकलता होती है उसे आर्त्तध्यान कहते है। उक्त चार निमित्तो की अपेक्षा इसके चार भेद हो जाते हैं। रौद्र ध्यान-'रुद्र' का अर्थ होता है 'क्रूर'। जो ध्यान क्रूर-परिणामो से होता है, उसे रौद्र ध्यान कहते हैं। रौद्र ध्यान का मूल आधार क्रूरता है। अत क्रूरता के जनक हिसा, झूठ, चोरी और विषय-सरक्षण के निमित्त मे रौद्र ध्यान के भी चार भेद हो जाते है-हिसानन्दि, मृषानन्दि, चौर्यानन्दि और विषय सरक्षणानन्दि (परिग्रहानन्दि), इनका अर्थ इनके नामो से ही स्पष्ट है। इस प्रकार आर्त और रौद्र ध्यान बिना प्रयत्न के ही हमारे सस्कारवश चलता रहता है। ये दोनों ध्यान हमारे दुर्गति के कारण है। इन्हें मोक्षमार्ग में कोई स्थान नही है। न ही ऐसे ध्यान तप की श्रेणी में आते हैं, अपितु ये दोनों तप के विरोधी हैं। इन अशुभ विषयों से चित्त को हटाकर, किसी शुभ विषय मे मन को टिकाना ध्यान तप है। धर्म-ध्यान और शुक्ल ध्यान प्रशस्त ध्यान की श्रेणी में आते है। धर्म ध्यान-पवित्र विचारों से मन का स्थिर होना धर्म-ध्यान है। इसमें धार्मिक-चितन की मुख्यता रहती है । निमित्तो की अपेक्षा धर्मध्यान के चार भेद हो जाते है आज्ञा विचय-वीतरागी महापुरषो की जो धर्म-सबधी आज्ञाए है, उनका विचार करना,उनकी आज्ञा का प्रकाशन करना आज्ञा विचय' धर्म ध्यान है। पूजन,विधानादि इसी ध्यान में आते हैं। अपाय विचय–'अपाय' का अर्थ दुःख' होता है। मसार के प्राणी अपने अज्ञान से दुखी है। उनके दुःखों का अभाव केस ही, इस प्रकार का करुणापूर्ण चितन अपाय विचय' धर्म ध्यान है। विपाक विचय-कर्म फल के बार म विचार करना 'विपाक-विचय' है । मसारी जीव अपने-अपने कर्मों से पीडित होकर कैसे कैसे कर्मों का फल भोगते है। सभी को अपने-अपने कर्मों के अनुसार ही सुख दुख मिलता रहता है। इस प्रकार का विचार करना विपाक विचय' धर्म ध्यान हे। मस्थान विचय–विश्व या लोक के स्वरूप का मतत् चितवन करते रहना 'मस्थान विचय' धर्म ध्यान है। शुक्ल ध्यान-मन की अत्यत निर्मलता होने पर, जो एकाग्रता होती है, वह 'शुक्ल ध्यान' है। शुक्ल ध्यान के चार भेद किय गये हैं। पृथकत्व-वितर्क-विचार-तीनों योगो में प्रवृत्त होना 'पृथकत्व' है। श्रुत ज्ञान के आलबन को वितर्क कहते हैं तथा अर्थ व्यजन और योगों के परिवर्तन को 'विचार' कहते हैं। 1 अत वा 9126/10 बत वा 928/4
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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