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________________ 162 / जैन धर्म और दर्शन वैयावृत्य : गुणों के अनुराग पूर्वक संयमीजनों के खेद को दूर करना, हाथ-पांव दबाना तथा और भी जो कुछ उपकार करना है, वह वैयावृत्य कहलाता है । बाल, वृद्ध, युवा, तपस्वी आदि साधुओं के हाथ-पांव दबाकर, तेल मर्दन कर, आवश्यकतानुसार योग्य औषधि देकर, लगाकर उनकी यात्रा, स्वाध्याय, और तपस्याजन्य श्रम के खेद को दूर करना वैयावृत्य है। वैयावृत्य का बहुत महत्त्व है। इसके करने से समाधि-धारण, ग्लानि पर विजय तथा परस्पर वात्सल्य एवं सनाथता प्रकट होती है। आचार्य श्री कुंद-कुंद ने वैयावृत्य को जिन-भक्तिपरक बताते हुए, अपनी शक्ति के अनुसार सदाकाल करने की प्रेरणा दी है। भगवती आराधना में कहा गया है कि “समर्थ होते हुए भी जो वैयावृत्ति नहीं करता, वह धर्म-भ्रष्ट है।" जिनाज्ञा का भंग, शास्त्र कथित धर्म का नाश अथवा साधु-वर्ग का व आगम का त्याग ऐसे महादोष वैयावृत्ति न करने से उत्पन्न होते हैं। स्वाध्याय: आलस्य के त्याग और ज्ञान की आराधना को स्वाध्याय कहते हैं। वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश ये पांच स्वाध्याय के भेद हैं।' ग्रंथों का अर्थ सहित पढ़ना/पढ़ाना बांचना है। संशय के निवारणार्थ तथा अर्थ के निश्चय के लिए ज्ञानीजनों से प्रश्न करना 'पृच्छना' है। पढ़े हुए अर्थ का बार-बार विचार करना 'अनुप्रेक्षा' है। शुद्धतापूर्वक पाठ करना ‘आम्नाय' है। धर्म का उपदेश करना धर्मोपदेश स्वाध्याय करने से ज्ञान बढ़ता है, वैराग्य बढ़ता है एवं तप में वृद्धि होती है। मन को स्थिर रखने का स्वाध्याय से सरल उपाय और कोई नहीं है। इसीलिए कहा गया है कि स्वाध्याय से बड़ा कोई तप नहीं है। व्युत्सर्ग-अहकार और ममकार का त्याग करना व्युत्सर्ग तप है। इसके दो भेद हैं बाह्य उपधि त्याग और अभ्यंतर उपधि त्याग।' आत्मा से पृथक् धन-धान्यादि के प्रति ममता का त्याग करना बाह्य उपधि त्याग है तथा रागादिक विकारी भावों का त्याग अभ्यंतर उपधि त्याग है। कुछ समय के लिए अथवा जीवन पर्यत के लिए शरीर के ममत्त्व को त्यागना अभ्यंतर उपधि त्याग है। इसके करने से निर्भयता और नि:संगता आती है। मन हल्का होता है तथा आशा-तृष्णा पर विजय होती है। ध्यान-मन की एकाग्रता को ध्यान कहते हैं। चित्त का किसी एक विषय को लेकर उसमें लीन होना ध्यान है। हमारे चित्त का यह स्वभाव है कि वह सामान्यतः हर समय कुछ न कुछ ध्यान किया करता है। भले ही वह शुभ हो अथवा अशुभ, इसी दृष्टि से ध्यान के 1 भाव प्राभृत 103 2 रक वा मू पृ 142 3 शिष्याध्यापन वाचना ध पु 97252 4 तू सू 925 5 णवि अत्वि नविय होहिदि सञ्झाय सम तवो कम्म । भग आ-107 6 सर्वा सि 9720 7 तवा 9126/3-4-5 8 वही 9 तवा 926/34-5
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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