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________________ कर्म मुक्ति के उपाय :-(संवर-निर्जरा) / 149 उठने-बैठने, चलने-फिरने आदि क्रियाओं में होने वाली सावधानी ही समिति कहलाती है। समिति की व्युत्पत्ति करते हुए कहा गया है 'समेकी भावेनेति इति समिति' अर्थात् हम जिस क्रिया में संलग्न हैं उस क्रिया में एक भाव होना.परी तत्परता और एकाग्रता होना समिति है। अपनी प्रवृत्तिगत सावधानी या आत्म जागति ही समिति है। समितियां पांच होती हैं-ईर्या समिति, भाषा समिति, एषणा समिति, आदान-निक्षेपण समिति और प्रतिष्ठापन समिति। 1. ईर्या समिति : किसी भी जीव-जन्तु को क्लेश न हो, इस प्रकार सावधानीपूर्वक, चार हाथ जमीन देखकर चलना 'ईर्या' समिति है। 2. भाषा समिति : सत्य.हितकारी.परिमित और असदिग्ध वचन बोलना भाषा समिति है । बोलते समय बरती जाने वाली सावधानी 'भाषा' समिति है। 3. एषणा समिति : शुद्ध और निर्दोष आहार विधि-पूर्वक ग्रहण करना 'एषणा समिति' 4. आदान-निक्षेपण समिति : 'आदान' का अर्थ होता है 'ग्रहण करना' तथा 'निक्षेपण' का अर्थ रखना है। वस्तु को देखभाल कर, सावधानीपूर्वक, जीवरहित स्थानों पर उठाना-रखना 'आदान-निक्षेपण समिति' है। 5. प्रतिष्ठापन समिति : भली-भांति देखकर शुद्ध और निर्जन्तुक स्थान पर अपने मल-मूत्र का त्याग करना 'प्रतिष्ठापन' समिति है, अर्थात् मल-मूत्र के त्याग में रखी जाने वाली सावधानी। इसे 'व्युत्सर्ग' समिति भी कहते हैं। ये पांचों समितियां कर्म-विनाश के कारण हैं तथा इन्हें साधना-पथ का मल माना गया है। गुप्ति पाप क्रियाओं से आत्मा को बचाना गुप्ति है।' 'गुप्ति' का शाब्दिक अर्थ होता है 'गोपन करना/रक्षा करना' अर्थात् मन-वचन-काय की अकुशल प्रवृत्तियों से आत्मा की रक्षा करना 'गुप्ति' है। मन-वचन-काय की प्रवृत्ति को उन्मार्ग से रोकना, यही गुप्ति शब्द का भावार्थ है। गुप्तियां तीन हैं—मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति । मन का राग-द्वेष, क्रोधादि से अप्रभावित होना 'मनोगुप्ति' है। असत्य वाणी का निरोध करना अथवा मौन रहना ‘वचन गुप्ति' है । तथा शरीर को वश में रखकर हिंसादिक क्रियाओं से दूर होना 'कायगुप्ति' है।' यह गुप्ति ही संवर का साक्षात कारण है। गप्ति में असत क्रिया के निरोध की मख्यता रहती है तथा समिति में सत् क्रिया की प्रवृत्ति की मुख्यता रहती है। गुप्ति और समिति में यही अंतर है। 1. योगसार स्वोवृत्ति 7/34 2. भग आ विजयो 16 3. भग आ विजयो 115 4. नि सा.-65.म.चा 5/135,भग आ.1187 5. भग आ. विजयो 115
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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