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________________ 148 / जैन धर्म और दर्शन संवर के भेद द्रव्य और भाव की अपेक्षा संवर के दो भेद किए गए हैं। कर्म परमाणुओं के आगमन का निरोध हो जाना द्रव्य संवर है तथा आत्मा के जिन भावों से कर्मों का आगमन रुकता है, उन्हें भाव-संवर कहते हैं। संवर के साधन व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषह-जय और चारित्र ये सात मवर के साधन कहे गये है। इनके पालन से उत्पन्न आत्मिक विशुद्धि कर्म-प्रवाह को रोक देती है। ये मूलत सात हैं कितु अपने उत्तर भेदो को मिलाने पर कुल बासठ हो जाते हैं। व्रत पापों से विरत होने/दूर हटने को व्रत कहते हैं । " हिसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेम्योविरतिर्वतम्।' हिसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाच को पाप कहा गया है। इनसे विरत होना/इनका त्याग करना ही व्रत कहलाता है। उक्त पाच पापो का त्याग करने पर क्रमश अहिसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह व्रत होते हैं। इनके पूर्ण त्याग को महाव्रत कहते है तथा आशिक त्याग को अणुव्रत कहते हैं। महाव्रतों का पालन साधुगण करते हैं तथा अणुव्रतो का पालन श्रावक/गृहस्थ जन-समाज में रहते हए अपनी शक्ति के अनुसार करते है। अहिसा . मन, वचन, काय से किसी को कष्ट पहुचाना हिसा है। उनके त्याग को अहिसा कहते है। सत्य : जो यथार्थ नही है, उसे कहना झूठ है । इस झूठ का त्याग करना 'सत्य' व्रत अचौर्य : बिना दी हुई वस्तु को ग्रहण करना चोरी है। इसके त्याग को 'अचौर्य' व्रत कहते है। ब्रह्मचर्य : मैथुन-कर्म को कुशील कहते है। इनका मन, वचन और काय से त्याग करना 'ब्रह्मचर्य' व्रत है। _ अपरिग्रह : मूर्छा को परिग्रह कहते हैं। धन-धान्य, कुटुम्ब, परिवार और अपने शरीर के प्रति उत्पन्न आसक्ति को मूर्छा कहते हैं । इस मूर्छा का त्याग ही 'अपरिग्रह' व्रत है। समिति सम्यक् प्रवृत्ति को समिति कहते हैं। समिति का अर्थ हुआ 'सावधानीपूर्वक प्रवृत्ति करना'। 1 अ-हरि पु 58/300 ब-प का जय वृ 143 2 अ सर्वा सि-91 ब हरि पु 58/300 3 तत्वार्थ सूत्र 7/1 4 तत्वार्थ सूत्र 72 5 (अ) भग आ विजयो-16(ब) सर्वा सि-92 (स) आचार सार 51137
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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