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________________ क्रमानुसार ही अपना फल प्रदान करते हैं । यह कोई जरूरी नहीं कि कर्म अपना फल देकर ही उदय में आएं, क्योंकि आन्तरिक शक्तियों और बाह्य परिस्थितियों के अनुकूल न रहने पर कर्म अपना फल दिए बिना भी ( अन्य कर्म-रूप परिणत होकर) आत्म प्रदेशों से अलग हो सकते हैं। ' कर्मों की विविध अवस्थाएं / 143 सभी मूल कर्म अपने-अपने स्वभावानुसार ही अपना फल देते हैं। उनमें परस्पर कोई परिवर्तन नहीं होता । 2 जैसे, ज्ञानावरणी कर्म का फल ज्ञान को कुंठित व अवरुद्ध करने का मिलेगा । दर्शनादि अन्य शक्तियों में बाधा पहुंचाने में, उसका कोई हस्तक्षेप नहीं रहता । कर्म अपने अवान्तर भेदों में परिवर्तित हो सकते हैं। जैसे—साता वेदनीय कर्म असाता वेदनीय रूप फल दे सकता है अथवा शुभ नाम-कर्म अशुभ नाम-कर्म रूप फल दे सकता है, किंतु चारों आयु कर्म, दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय इसके अपवाद हैं। वे अपना फल स्वमुख से ही देते हैं अर्थात् एक आयु दूसरी आयु रूप नहीं हो सकती । इसी प्रकार दर्शन - मोहनीय और चारित्र - मोहनीय परस्पर बदलकर अपना फल प्रदान नहीं कर सकते । कर्म, फल देने के तत्काल बाद आत्म-प्रदेशों से अलग हो जाते हैं, वे पेड़ से गिरे फल की तरह पुनः फल नहीं दे सकते । कर्म फल देने के बाद उनकी 'निर्जरा' या 'क्षय' हो जाती है । क्षय होने का तात्पर्य उनका सर्वथा विनष्ट होने से नहीं है, वरन् उनके कर्मरूप पर्याय को छोड़कर अन्य अकर्मरूप पर्यायों में परिवर्तित हो जाने से है । ये है संक्षेप में, जैन कर्म सिद्धांत । " जैसी करनी वैसी भरनी" या "जो जस करहि, सो तस फल चाखा” आदि कहावतों का प्रमुख आधार यही है। कुछ दार्शनिकों का मानना है कि कर्म अपना फल स्वयं नहीं देते, क्योंकि वे अचेतन हैं। अपना फल देने के लिए कर्म अचिन्त्य शक्ति के अधीन है। जिस प्रकार निष्पक्ष और स्वतंत्र न्यायाधीश निर्णय करके दोषी को दंड देता है, उसी प्रकार कर्मों का फल देने वाला सर्व शक्तिमान ईश्वर है। वही जीवों को उनके शुभाशुभ कर्मों के अनुसार फल प्रदान करता है। वे कहते हैं कि ईश्वर द्वारा प्रेरित जीव स्वर्ग या नरक जाता है। ईश्वर की सहायता के बिना कोई भी जीव सुख-दुःख पाने में समर्थ नहीं है । जैन दर्शन के अनुसार कर्म अपना फल स्वयं प्रदान करते हैं। उसके लिए किसी अन्य, ईश्वर जैसे न्यायाधीश की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि ईश्वर तो सुखादि अनंत चतुष्टयों से युक्त और कृत्य कृत्य होता । वह हमारे शुभाशुभ कर्मों में हस्तक्षेप क्यों करेगा । परम वीतरागी, महान करुणावान ईश्वर किसी को कर्मों का फल तीव्र अशुभ तथा 1. भग. आ. गा. 1170 2. सयथानाम, त. सू. 8/22 3. कर्म कांड गा 410 4. पक्के फलम्भि पडिदे जहण फलं वज्छदे पुणो विटे । जीवस्स कम्म भावे पडिदे पुणोदय मुवेदि । 5. ईश्वर प्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा । अन्योजन्तुरनीशोडयमात्मनः मुख दुःखयो । —समयसार 175 - स्याद्वाद मं टी, पृ. 30 पर उद्धृत
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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