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________________ 124 / जैन धर्म और दर्शन उत्पन्न कराता है, वह 'मिथ्यात्व' कर्म है। इस कर्म के उदय से जीव को वह मूढ अवस्था उत्पन्न हो जाती है, जिससे वस्तु के वास्तविक स्वरूप के ग्रहण की योग्यता सर्वथा तिरोहित हो जाती है। (2) सम्यक्-मिथ्यात्व यह कर्म तत्त्व श्रद्धा में दोलायमान स्थिति उत्पन्न कराता है। इस कर्म के उदय से न तत्त्व के प्रति रुचि रहती है, न अतत्त्व के प्रति । इसलिए इसे मिश्र-मोहनीय कर्म भी कहते हैं। यह सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का मिश्रित रूप है। (3) सम्यक्त्व जो कर्म सम्यक्त्व को तो नही रोकता, कितु उसमें चल, मलिन और अगाढ दोष उत्पन्न करता है,वह 'सम्यक्त्व' मोहनीय कर्म है । इस प्रकार मिथ्यात्व-प्रकृति अश्रद्धा रूप होती है तथा सम्यक्-मिथ्यात्व प्रकृति श्रद्धा और अश्रद्धा से मिश्रित होती है तथा सम्यक्त्व-प्रकृति से श्रद्धा में शिथिलता या अस्थिरता होती है। जिसके कारण चल, मलिन और अगाढ ये तीन दोष उत्पन्न होते हैं। यह प्रकृति सम्यकत्व घात तो नही करती.परत शकादिक दोषों को उत्पन्न करती है। 2. चारित्र मोहनीय पाप की क्रिया की निवृत्ति को चारित्र कहते हैं। मिथ्यात्व, असयम और कषाय पाप है। इनके त्याग को चारित्र कहते हैं । इस चारित्र के विघातक कर्म को चारित्र-मोहनीय कहते है अथवा अपने स्वरूप में रमण करना चारित्र है। जो उस चारित्र का विघातक है, उसे 'चारित्र मोहनीय' कहते है। कषाय-वेदनीय और नोकषाय-वेदनीय के भेद से चारित्र मोहनीय के भी दो भेद है। कषाय वेदनीय मुख्य रूप से चार प्रकार का है-1 क्रोध.2 मान,3 माया और 4 लोभ । क्रोधादि चारो कषाय तीव्रता व मदता की दृष्टि से चार चार प्रकार की होती है-अनतानबधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान तथा सज्वलन। इस प्रकार कषाय वेदनीय के कुल सोलह भेद हो जाते है, जिनके उदय से क्रोधादिक भाव होते है। (अ) अनतानुबधी अनतानुबधी के प्रभाव से जीव को अनतकाल तक भव-भ्रमण करना पड़ता है। इसके उदय में सम्यक्त्व और चारित्र दोनो ही नही हो पाते। (ब) अप्रत्याख्यान 'प्रत्याख्यान' का अर्थ होता है 'त्याग'। जिस कषाय के उदय से ईषत त्याग अर्थात देश सयम भी ग्रहण किया जा सके,वह अप्रत्याख्यान कषाय है। (स) प्रत्याख्यान जिस कषाय के उदय से सकल सयम को ग्रहण न किया जा सके वह 'प्रत्याख्यान' कषाय है। (द) सज्वलन जिस कषाय के उदय से सकल-सयम तो हो जाए, कितु आत्म 1 जे सि कोष 4/371 2 पाप क्रिया निवृत्तिश्चारित्र । त मोहेईआवरेदि त्रि चारित्रमोहणीय ॥ ध पु 6/40 3 ष ख 6/1/9/1, सूत्र 22, पृ 40 4 वही। 5 सम्मत्त देस सयल चारित जह घाद करण परिणामो। घादति व कसाया चउ सोल असख लोग मिदा ॥ गो जी क 283 6 वही। 7 वही।
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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