SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्म और उसके भेद-प्रभेद / 123 वेदनीय कर्म-बंध के कारण : सभी प्राणियों पर अनुकंपा रखने से व्रतियों की सेवा करने से, दान देने से, हृदय में शांति और पवित्रता रखने से, साधुओं या श्रावकों के व्रत पालन से, कषायों को वश में रखने से साता-वेदनीय कर्म का बंध होता है। इसके विपरीत स्वपर को दुःख देने से, शोकमग्न रहने से, पीड़ा पहुंचाने आदि आचरण करने से दुःख के कारणभूत असाता वेदनीय कर्म का बंध होता है। असाता वेदनीय कर्म के फलस्वरूप देह सदा रोग-पीड़ित रहता है तथा बुद्धि और शुभ क्रियाएं नष्ट हो जाती हैं। यह प्राणी अपने हित के उद्योग में तत्पर नहीं हो सकता। 4. मोहनीय कर्म : जो कर्म आत्मा को मोहित करता है, मूढ़ बनाता है, वह मोहनीय कर्म है। इस कर्म के कारण जीव मोह ग्रस्त होकर संसार में भटकता है। मोहनीय कर्म संसार का मूल है। इसीलिए इसे 'कर्मों का राजा' कहा गया है। समस्त दुःखों की प्राप्ति मोहनीय कर्म से ही होती है। इसीलिए इसे 'अरि' या 'शत्रु' भी कहते हैं। अन्य सभी कर्म मोहनीय के अधीन हैं। मोहनीय कर्म राजा है, तो शेष कर्म प्रजा। जैसे राजा के अभाव में प्रजा कोई कार्य नहीं कर सकती, वैसे ही मोह के अभाव में अन्य कर्म अपने कार्य में असमर्थ रहते हैं। यह आत्मा के वीतराग-भाव तथा शुद्ध स्वरूप को विकृत करता है। जिससे आत्मा राग-द्वेषादि विकारों से ग्रस्त हो जाता है। यह कर्म स्वपर विवेक एवं स्वरूप रमण में बाधा समुपस्थित करता है। इस कर्म की तुलना मदिरापान से की गयी है। जैसे मदिरा पान से मानव परवश हो जाता है, उसे अपने तथा पर के स्वरूप का भान नहीं रहता है, वह हिताहित के विवेक से शन्य हो जाता है वैसे ही मोहनीय कर्म के उदय मे जीव को तत्त्व अतत्त्व का भेद विज्ञान नहीं हो पाता । वह संसार के विकारों में उलझ जाता है।' दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय के भेद से मोहनीय कर्म दो प्रकार का है 1. दर्शन मोहनीय : यहां 'दर्शन' का अर्थ-तत्वार्थ श्रद्धान रूप आत्म गुण है। आप्त. आगम या पदार्थों में रुचि या श्रद्धा को दर्शन कहते हैं। जो उम दर्शन को मोहित करता है अर्थात विपरीत कर देता है, उसे 'दर्शन मोहनीय' कर्म कहते हैं जैसे मदिरा-पान से बुद्धि मूर्छित हो जाती है, वैसे ही दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से आत्मा का विवेक विलुप्त हो जाता है। यह अनात्मीय पदार्थों को आत्मीय समझता है। वह तत्त्व को अतत्त्व, अतत्त्व तत्त्व तथा धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म समझने लगता है।' दर्शन मोहनीय के तीन भेद हैं-1. मिथ्यात्व,2. सम्यक्-मिथ्यात्व,3. मम्यक्त्व । (1) मिथ्यात्व कर्म : जो कर्म तत्त्व में श्रद्धा उत्पन्न नहीं होने देता और विपरीत श्रद्धा 1. त. सू. 6/12 2. त. सू.6/11 3. सर्वा. सि. 4. ध पु. 1, पृ. 45 5.द्र. स.टी. गा 33 6. ख.6/1.9.1.स.20, पृ.37 7. तत्वार्थ श्रद्धान सम्यक् दर्शनम् त. सू. 1/2 8. ध पु.6/38 9. पचध्यायी2/98
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy