SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 108 / जैन धर्म और दर्शन असावधानी से कुशल कर्मों के प्रति अनास्था भी उत्पन्न होती है और हिंसा की भूमिका तैयार होती है। हिंसा का मुख्य कारण प्रमाद है । ' 4. कषाय : 'कषाय' शब्द दो शब्दों के मेल से बना है 'कष + आय' । 'कष' का अर्थ 'संसार' है, क्योंकि इसमें प्राणी विविध दुःखों के द्वारा कष्ट पाते हैं, आय का अर्थ है 'लाभ' । इस प्रकार कषाय का सम्मिलित अर्थ यह हुआ कि जिसके द्वारा संसार की प्राप्ति हो, वे कषाय हैं। 2 : वस्तुतः कषायों का वेग बहुत ही प्रबल है। जन्म-मरण रूप यह संसार वृक्ष 'कषायों' के कारण ही हरा-भरा रहता है। यदि कषायों का अभाव हो तो जन्म-मरण की परंपरा का यह विष-वृक्ष स्वयं ही सूखकर नष्ट हो जाये । कषाय ही समस्त सुख-दुःखों का मूल है. । कषाय को कृषक की उपमा देते हुए 'पंच मंग्रह' में कहा गया है कि 'कषाय' एक ऐसा कृषक है जो चारों गतियों की मेढ वाले कर्म रूपी खेत को जोतकर मुख-दुःख रूपी अनेक प्रकार के धान्य उत्पन्न करता है। आचार्य वीरसेन स्वामी ने भी कषाय की कर्मोत्पादकता के संबंध में लिखा है, जो दुःख रूप धान्य को पैदा करने वाले कर्म रूपी खेत को कर्षण करते हैं, जोनते हैं, फलवान करते हैं, वे क्रोध मानादिक कषाय हैं।4 क्रोध, मान, माया, , लोभ के भेद से कषाय के चार भेद हैं। इनमें क्रोध और मान द्वेष रूप हैं तथा माया और लोभ राग-रूप हैं। राग और द्वेष समस्त अनर्थों का मूल हैं । 5. योग : जीव के प्रदेशों में जो परिस्पंदन या हलन चलन होता है उसे योग कहते हैं । (योग का प्रसिद्ध अर्थ यम नियमादि क्रियाएं हैं, पर वह यहां अभिप्रेत नहीं है ।) जैन दर्शन के अनुसार मन, वचन और काय से होने वाली आत्मा की क्रिया कर्म परमाणुओ के साथ आत्मा का योग अर्थात् संबंध कराती है। इसी अर्थ में इसे योग कहा जाता है। यह योग प्रवृति के भेद तीन प्रकार का है- - मन- योग, वचन- योग और काय-योग। जीव की कायिक (शरीर) प्रवृत्ति को काय-योग तथा वाचनिक और मानसिक प्रवृत्ति को क्रमशः वचन और मनोयोग कहते है । I प्रत्ययों के पाँच होने का प्रयोजन आत्मा के गुणों का विकास बनाने के लिए जैन दर्शन में चौदह गुण स्थानों का निरूपण किया गया है। उनमें जिन दोषों के दूर होने पर आत्मा की उन्नति मानी गयी है, उन्हीं दोषों को यहां आस्रव के हेतु में परिगणित किया गया है। ऊंचे चढ़ते समय पहले मिथ्यात्व जाता है, फिर अविरति जाती है, तदुपरांत प्रमाद छूटता है, फिर कषाय, और अंत में योग का सर्वथा निरोध होने पर आत्मा सर्व कर्मों से मुक्त बनकर सिद्धावस्था प्राप्त करता है । इसलिए मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कषाय, और 1 जैद पृ 179 2 कष. ससार तस्य आय प्राप्तयः कषाया। पच स स्वो 3/23 पृ 35 3 सुह दुक्ख बहुसस्स कम्मरेखे कसेइ जीवस्स । ससार दूर मेर तेण कसाओत्रि ण विति । प्रा प स 1109 4 दुःख शस्य कर्म क्षेत्र कृर्षान्ति फलवत् कुवन्तीति कषायाः क्रोधमान माया लोभा. - पु 6,41 5 सर्वा सि. 6/1 पृ 24 6 (अ) प्रयोजनश्च गुणस्थान भेदेन बध हेतु विकल्प योजन वोद्धव्यम (ब) विस्तरस्तु गुण स्थान क्रमापेक्षया पूर्वोक्त चतुष्टय, पच वा कारणानि भवन्ति त. वृ. भास्कर नन्दि - 453 जैन दर्शन सार पृ. 44
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy