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________________ कर्मबंध की प्रक्रिया (आस्रव बंध) / 107 तक नहीं ठहर पाता । इसकी स्थिति एक समय की होती है। आस्रव के कारण जैनागम में आस्रव के पांच कारण बताये गये हैं-1. मिथ्यात्व, 2. अविरति, 3. प्रमाद, 4. कषाय 5. योग। 1.मिथ्यात्व-विपरीत-श्रद्धा या तत्व ज्ञान के अभाव को मिथ्यात्व कहते है। । विपरीत श्रद्धा के कारण शरीरादि जड़ पदार्थों में चैतन्य बुद्ध,अतत्व में तत्व बुद्धि, अकर्म में कर्म बुद्धि आदि विपरीत भावना/प्ररूपणा पायी जाती है । मिथ्यात्व के कारण स्वपर विवेक नहीं होता। पदार्थों के स्वरूप में भ्रांति बनी रहती है । कल्याण मार्ग में सही श्रद्धा नहीं होती। यह मिथ्यात्व सहज और गृहीत दोनों प्रकार से होता है। दोनों प्रकार के मिथ्यात्व में तत्व रुचि जागृत नहीं होती है । जीव कुदेव,कुगुरु और लोक मूढ़ताओं को ही धर्म मानता है । यह सब दोषों का मूल है,इसलिये इसे जीव का सबसे बड़ा अहितकारी कहा गया है। इस मिथ्यात्व के पांच भेद हैं (1.) एकांत : वस्तु के किसी एक पक्ष को ही पूरी वस्तु मान लेना, जैसे पदार्थ नित्य ही है या अनित्य ही है। अनेकांतात्मक वस्तु तत्त्व को न समझकर एकांगी दृष्टि बनाए रखना । वस्तु के पूर्ण स्वरूप से अपरिचित रहने के कारण सत्यांश को ही सत्य समझ लेना। (2.) विपरीत : पदार्थ को अन्यथा मानकर अधर्म में धर्म बुद्धि रखना। (3.) विनय : सत्यासत्य का विचार किए बिना तथा विवेक के अभाव में जिस किसी की विनय को ही अपना कल्याणकारी मानना। (4.) संशय : तत्त्व और अतत्त्व के बीच संदेह में झूलते रहना। (5.) अज्ञान : जन्म-जन्मांतरों के संस्कार के कारण विचार और विवेक-शून्यता से उत्पन्न अतत्त्व श्रद्धान। 2. अविरति : सदाचार या चरित्र ग्रहण करने की ओर रुचि या प्रवृत्ति न होना अविरति है। मनुष्य कदाचित् चाहे भी तो, कषायों का ऐमा तीव्र उदय रहता है, जिससे वह आंशिक चरित्र भी ग्रहण नहीं कर सकता।' 3. प्रमाद : 'प्रमाद' का अर्थ होता है 'असावधानी' । आत्मविस्मरण या अजागति को प्रमाद कहते हैं। अधिक स्पष्ट करें तो कर्तव्य और अकर्तव्य के विषय में सावधानी न रखना प्रमाद है। कशल कार्यों के प्रति अनादार या अनास्था होना भी प्रमाद है। प्रमाद के पंद्रह भेद हैं-पांच इंद्रिय,चार विकथा,चार कषाय तथा प्रणय और निद्रा। प्रो. महेन्द्र कुमार न्यायपर्याय के अनुसार पांचों इन्द्रियों के विषय में तल्लीन रहने के कारण राज कथा, चोर कथा, स्त्री कथा और भोजन कथा आदि विकथाओं में रस लेने से क्रोध, मान, माया एवं लोभ इन चार कषायों से कलुषित होने के कारण तथा निद्रा, प्रणय आदि में मग्न रहने के कारण कुशल कार्यों में अनादार भाव उत्पन्न होता है। इस प्रकार की 1. द्र. स. गा 30 2. त वा 8/1/6 3. जे. द. पृ. 173 4. कुशलेष्वनादरः प्रमाद:-सर्वा. सि. 8/1 पृ. 291 5. प. स. प्रा. 1/15
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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