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________________ 96 / जैन धर्म और दर्शन द्वन्द्व छिड़ जाता। धर्म द्रव्य जीव और पुद्गलों को चलने के लिए प्रेरित करता तो अधर्म द्रव्य उनके पांव पकड़कर अपनी ओर खींचता रहता; बड़ी अव्यवस्था हो जाती, न तो हम चल पाते, न ही ठहर पाते, जबकि ऐसा है नहीं । इन्हें उदासीन निमित्त माना गया है। इनकी उपस्थिति में हम चलना चाहें तो धर्म द्रव्य हमारा साथ देने तैयार खड़ा है तथा यदि हम ठहरना चाहें तो अधर्म द्रव्य हमारे स्वागत में प्रतीक्षारत है । | यद्यपि अन्य दर्शनों एवं विज्ञान ने इसे स्वीकार नहीं किया है, किंतु प्रोफेसर जी. आर. जैन ने अपनी 'कास्मोलॉजी : ओल्ड एंड न्यू' नामक पुस्तक में न्यूटन की आकर्षण शक्ति की तुलना की है। वे लिखते हैं कि "यह जैन धर्म की अधर्म द्रव्य विषयक सिद्धांत की सबसे बड़ी विजय है कि विश्व की स्थिरता के लिए विज्ञान ने अदृश्य आकर्षण शक्ति की सत्ता को स्वीकार किया है और प्रसिद्ध वैज्ञानिक आईंस्टाइन ने उसमें कुछ सुधार करके उसे क्रियात्मक रूप दिया। अब आकर्षण सिद्धांत को सहायक कारण के रूप में माना जाता है, मूल कर्त्ता के रूप में नहीं । इसलिए अब वह जैन धर्म-विषयक अधर्म द्रव्य की मान्यता के बिल्कुल अनुरूप बैठता है । "] 1 संसार के निर्माण के लिए पदार्थों को गति और स्थिरता के नियमों में बद्ध होना आवश्यक है। यदि धर्म द्रव्य न हो तो हम चल ही न सकेंगे और यदि अधर्म द्रव्य न हो तो हम चलते ही रहेंगे । लोक और अलोक का विभाजन भी इन दोनों द्रव्यों के कारण ही हो पाता है, क्योंकि जहां तक पदार्थ स्थित है वहीं तक लोक है तथा लोक वहीं तक है जहां तक कि पदार्थों की गति । जिस प्रकार पटरी के अभाव में क्षमता रहते हुए भी रेल पटरी की सीमा का उल्लंघन कर आगे नहीं बढ़ पाती, उसी तरह जीव और पुद्गल की भी वहीं तक गति और स्थिति है जहां तक कि धर्म और अधर्म द्रव्य हैं, ये इनका उल्लंघन नहीं कर सकते । आधुनिक विज्ञान भी इस बात को स्वीकारता है । प्रसिद्ध वैज्ञानिक आईंस्टाइन ने भी गति तत्त्व को स्वीकार करते हुए कहा है “लोक परिमित है, लोक से परे अलोक अपरिमित । लोक के परिमित होने का कारण यह है कि द्रव्य अथवा शक्ति लोक के बाहर नहीं जा सकती। लोक के बाहर उस शक्ति का अभाव है। जो गति में सहायक होता है।' "2 आकाश द्रव्य यह रूपादि रहित, अमूर्त, निष्क्रिय तथा सर्वव्यापक द्रव्य है । लोकवर्ती समस्त पदार्थों को यह स्थान/अवगाह (Space) देता है तथा स्वयं भी उसमें अवगाहित होता है। यद्यपि जीव और पुद्गल भी एक-दूसरे को अवगाह देते हैं किंतु उन सबका आधार आकाश ही है । यह लोक और अलोक के भेद से दो भागों में विभक्त है। आकाश के जितने हिस्से में जीवादि पाए जाते हैं, वह लोकाकाश है तथा उससे बाहर का शुद्ध आकाश अलोकाकाश कहलाता है। 1. Cosmology old & New, Page No. 25-26 2. Holly wood R & T Instruction lesson No. 2 3. द्र. स. 19 4. द्र. सं. 20
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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