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________________ अजीव तत्व-पुद्गल द्रव्य / 95 तरह प्रोफेसर मेक्स बोर्न कहते हैं-"शक्ति और पदार्थ एक वस्तु विशेष के दो पृथक् नाम हैं। अब तो एनर्जी के भार भी आंके जा रहे हैं।" उपर्युक्त कथन से यह स्पष्ट है कि एनर्जी और मेटर दोनों पुद्गल के ही नामांतर हैं । विज्ञान जिसे एनर्जी कहता है वह इन शब्दादि का ही सूक्ष्म परिणमन है। हमारा जीवन-मरण, सुख-दुःख, शरीर, वचन, श्वास आदि सारे व्यापार इस पुद्गल द्रव्य के ही आश्रित हैं। इस प्रकार जो भी पदार्थ हमारे छूने, चखने, देखने या सूंघने में आते हैं वे सब इस पुद्गल द्रव्य की ही विविध अवस्थाएं हैं। इनका अपना अस्तित्व है। ये स्वप्न की तरह मिथ्या नहीं है,न ही माया की आंख मिचौनी; अपितु पुद्गल की संतान होने से यह सब परमार्थतः सत् है। धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य धर्म द्रव्य यह पुण्य और पाप के अर्थ में प्रयुक्त न होकर,जैन दर्शन का एक पारिभाषिक शब्द (टेक्नीकल टर्म) है । यह एक स्वतंत्र द्रव्य है,जो गतिशील जीव और पुद्गल के गमन में सहकारी हैं। लोकवर्ती छह द्रव्यों में जीव और पुद्गल में ही गतिशीलता पाई जाती है । ये एक स्थान से दूसरे स्थान को भी जाते हैं। शेष धर्म,अधर्म,आकाश और काल ये चार द्रव्य निष्क्रिय हैं। इनमें हलन-चलनादि रूप क्रिया नहीं पाई जाती। धर्म द्रव्य समस्त लोकव्यापी अखंड द्रव्य है । तिल में तेल की तरह यह पूरे लोक में व्याप्त है,इसमें रूप,रस,गंध और स्पर्श का आभाव होने से यह अमूर्त भी है। रेल के चलने में सहायक रेल की पटरी की तरह यह बलात् या प्रेरित कर किसी को नहीं चलाता। अपितु, चलने के इच्छुक जीव और पुद्गलों को चलने में साथ देता रहता है। इसलिए इसे उदासीन निमित्त कहा गया है । धर्म द्रव्य की मान्यता अन्य दर्शनों में नहीं है, किंतु आधुनिक विज्ञान इसे ईथर के रूप में स्वीकार करता है क्योंकि आधुनिक विज्ञान ईथर को अमूर्तिक, व्यापक, निष्क्रिय और अदृश्य मानने के साथ-साथ उसे गति का आवश्यक मध्यम मानता है। जैन दर्शन मान्य धर्म-द्रव्य का भी यही लक्षण है। अधर्म द्रव्य-जिस प्रकार जीव और पुद्गलों के चलने में धर्म-द्रव्य सहायी है,उसी तरह अधर्म द्रव्य उनके ठहरने में सहायक है। धर्म द्रव्यवत् यह भी निष्क्रिय,अमूर्त और लोकव्यापी है। जैसे पृथ्वी,हाथी,घोड़ा,मनुष्यादि को जबरन नहीं ठहराती, अपितु वह ठहरना चाहे तो उसमें सहायक होती है अथवा वृक्ष चलते हुए पथिक को नहीं रोकते,पर वह स्वयं रुकना चाहे तो वह उसे अपनी छाया अवश्य देते हैं उसी प्रकार अधर्म द्रव्य भी किसी को जबरदस्ती नहीं रोकता अपित पदार्थ स्वयं रुकना चाहे तो यह उनका सहायी बन जाता है। यदि धर्म और अधर्म द्रव्य उदासीन न होकर प्रेरक होते तो धर्म और अधर्म दोनों में 1 वही, पृ 66 2 त सू5/19-20 3 द्रस 17 4 निष्क्रियाणिच, त सू.5/17 S The Nature of the Physical World, Page No 31 6 द्रस गा 18
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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