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________________ होता है। जैनधर्म की विशेषता एवं महानता अनेकान्त एव हिसा के सर्वाङ्गीण विवेचन पर प्रतिष्ठित है। सभी धर्म आत्मा की मुक्ति पर विश्वास करते है। जन्म एवं पुनर्जन्म के भव-भ्रमण से वियुक्त हो जाना ही अपना परम ध्येय मानते है। जैसा कि महावीर स्वामी ने सूत्र कृतांग में बताया है कि :-- "निवारण सेट्ठा जह सव्व धम्मा" अर्थात् सभी धर्मों का अन्तिम ध्येय मुक्ति है । जैनधर्म भी निर्वाण प्राप्ति को ही धर्म साधना का अन्तिम साध्य मानता है। और इसी उद्देश्य को सिद्धि के निमित्त उसने मोक्ष मार्ग का विधान किया है। जो तीन सिद्धान्तों का समन्वित स्वरूप है । जैसे कि सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, व सम्यक् चारित्र तीनों संयुक्त रूप मे मोक्ष का मार्ग है। मुझे यह देखकर हर्ष हुआ है कि श्रद्धय मुनि सुशीलकुमार जी ने यह अन्य नशास्त्रो के आधार पर तैयार किया है। जिससे जैनधर्म के प्रामाणिक स्वरूप को संक्षिप्त एव सुरुचिपूर्ण ढंग से पाठक प्राप्त कर सकें। इस ग्रन्थ की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसकी सामग्री दिगम्बर (षटखण्डागम् समयतार, श्रावकाचार आदि) एवं श्वेताम्वर (अंग, उपांग, मूल छेद, व जैनाचार्यो के ग्रन्य, उमास्वाती का तत्वार्थसूत्र) आगमो से संचित की गई है। समूचा ग्रन्थ तीन खण्डो में विभाजित है। ज्ञान खण्ड, दर्शन खण्ड, एवं चारित्र खण्ड। इन्हे क्रमशः वर्गीकृत कर १३ अध्यायो मे विभक्त कर दिया गया है। ग्रन्थ में जैन इतिहास व जैन संस्कृति का संक्षिप्त दिग्दर्शन भी कराया गया है। विद्वान् लेखक ने साम्प्रदायिक व विवादास्पद मतभेदो को ग्रन्थ से दूर ही रखा है। लेखक ने 'अतीत की झलक व जैन सभ्यता में इस तथ्य को अधिक सुन्दरता से स्पष्ट किया है कि जैनधर्म आर्यधर्म है। जैनधर्म के सभी तीर्थकर आर्य थे और जैनधर्म का पुराना नाम आर्य धर्म ही था। वैदिक धर्म, जैनधर्म य वद्ध धर्म, आर्यवर्म के ही अग है । दर्शन एव सिद्धान्तो के दृष्टिकोण से ये सब भिन्न-भिन्न है, परन्तु इन सब की संस्कृति एवं पृष्ठभूमि एक समान है। क्योकि इन सब का उद्गम स्थान मुझे इसमें किचित् भी सन्देह नही कि इस ग्रन्थ का धार्मिक क्षेत्रो में स्वागत किया जायेगा। यह ग्रन्थ विद्यार्थियों एवं जिज्ञासुओ को महान् जैनधर्म के समझने व उनके प्रति धारणा बनाने में सहायता करेगा। मुझे विश्वास है कि परम अदरणीय मुनि सुनील कुमार जी महाराज का यह जैनधर्म के प्रसार के निमित्त किया गया गुरुतर प्रयास अवश्य सुफल लायेगा। नई दिल्ली, अनंतशयनम आयंगर, अक्तूबर १, १९५८॥ अध्यक्ष लोकसभा, नई दिल्ली
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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