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________________ अतीत की झलक ४७ शिष्य-परम्परा भगवान् महावीर के सर्वज्येष्ठ शिष्य यद्यपि गणधर इन्द्रभूति थे, मगर भगवान् के निर्वाण के साथ ही वे केवली हो चुके थे, अतएव सर्वप्रथम संघ के प्राचार्य की उपाधि प्राप्त करने का श्रेय पाचवे गणधर श्री सुधर्मा स्वामी को मिला। इन सुधर्मा स्वामी से ही श्रुत की परम्परा जारी हुई। सौ वर्ष की उम्र मे इन्हे भी निर्वाण प्राप्त हो गया। सुधर्मा स्वामी के पश्चात् जम्बू स्वामी दूसरे प्राचार्य हुए । यह अन्तिम केवली हुए । इनके बाद इस क्षेत्र में फिर किसी को मुक्ति प्राप्त नहीं हुई। जम्बू स्वामी के पश्चात् तीसरे प्राचार्य प्रभव स्वामी थे। पहले वह पाच सौ चोरो के सरदार थे। दूसरे दिन प्रभात में मुनि दीक्षा लेने को उद्यत जम्बू कुमार के घर चोरी करने गये। अकस्मात् जम्बू कुमार से साक्षात्कार हो गया और वह भी वैरागी बन कर दीक्षित हो गए। आखिर वही उनके उत्तराधिकारी हुए। जम्ब स्वामी तक दिगम्वर-श्वेताम्बर-परम्परा का एक रूप है। उनके पश्चात् दोनो परम्परामो मे भेद हो गया है । श्वेताम्बर परम्परा मे प्रभव, स्वयभव, यशोभद्र, सभूति विजय और भद्रबाहु का उल्लेख है, तो दिगम्बर परम्परा मे, विष्ण, नन्दी, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु के नाम मिलते है। प्रतीत होता है, कि जम्बू स्वामी के पश्चात् ही सघ की एकता शिथिल होने लगी थी, फिर भी मतभेद ने उग्र रूप धारण नही किया था। यही कारण है कि दोनो परम्पराए भद्रबाहु स्वामी को श्रुतकेवली स्वीकार करती है। भद्रवाहु स्वामी सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य के गुरु थे। उन्होने वीरनिर्वाण स० १३६ के पश्चात् आचार्य यशोभद्र के पास दीक्षा अगीकार की। दीक्षा के समय उनकी उम्र ५३ वर्ष की थी। इस उम्र मे दीक्षित होकर भी उन्होने १४ पूर्वो का ज्ञान प्राप्त किया। १४ वर्ष तक अखण्ड वीरसघ के प्राचार्य रहे। ६६ वर्ष की उम्र में उनका देहावसान हो गया । उनके समय की प्रसिद्ध घटना द्वादशवीय दुर्भिक्ष है, जिसके कारण वे दक्षिण में चले गये। इस दुर्भिक्ष का सघ पर गहरा और स्थायी प्रभाव पड़ा।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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