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________________ जैन धर्म श्राज के गातिमय राष्ट्रीय जीवन में जबकि सामाजिक न्याय और राज्य शासन की समुचित व्यवस्था है । किन्तु उस काल के कप्टो का अनुमान लगाना दुप्कर है, जिनकी जलती ज्वाला मे जीवित निकल कर भगवान् महावीर के सहस्रो प्रजातनाम साबुत्रो ने अपने धर्म और कर्तव्य का पालन किया था । वे अत्याचारी न रहे, जिन्होने अनेक अराजकत्व काल में हमारे पूर्वज साधुग्री को अमानवीय पीडायें दी थी, वे लोग न रहे, जिनके अधर्ममय शासन में जैन साधुग्र की कष्ट - कहानिया बढ़ गई थी, वे सब न रहे, पर जैनधर्म और जैन माधु श्राज भी विद्यमान है । यह अन्याय और अधर्म पर, न्याय, धर्म और सत्य की जीत का सबूत है। ૪૨ श्रमण और प्रचार महावीर का धर्म किसी की जन्मगत, वर्ण-वर्गगत अथवा समाजगत वर्षांती नही है | यह तो अन्तशुद्धि पर बल देने वाली अत्यन्त वैज्ञानिक विचारधारा है, जो मनुष्य को सहज सरल तरीके से आध्यात्मिक जीवन, और लौकिक पारलौकिक मुक्ति की ओर ले जाती है । ग्रव, यह तो व्यक्ति और समाज की सावता पर निर्भर है, कि वह इस अमृत मे से कितनी बूंदे प्राप्त कर ले | विचार का जीवन - प्रचार आज भी पहले भी -- विचार का जीवन, प्रचार है | विचार धाराये प्रचार-प्रसार के आधार पर जीवित रहती है । भगवान् महावीर के विचारो को प्रचार ने ही अक्षुण्ण रखा है । यद्यपि प्रचार उद्देश्य नही है, माव्य नही है, पर वह साधन अवश्य है । विचार धारा का जितना विस्तार होगा, समाज में उतना ही प्रचार होगा । विचार-विषयक जितनी जानकारी बढेगी, उतनी ही अनुयायी वर्ग की संख्या में वृद्धि होगी, और विचारधारा को भी जीवित रहने के लिए अनुकूल वातावरण मिलेगा । पारस्परिक सौहार्द, महयोग एव साहस का सचार होगा । महावीर सबसे बडे प्रचारक एव दिव्य सदेश सवाहक थे । उन्होने अपने समस्त साधुओ, श्रावको साध्वियो और श्राविकाओं को आह्वान किया कि "धर्म प्रचार के पवित्रतम ग्रनुष्ठान मे ययागक्ति योग देकर ग्रात्मोद्धार एव परोद्धार करो ! " भगवान् महावीर धर्म प्रचारको, समाज व्यवस्थापको और अहिंसा के सेवको को सदैव प्रोत्साहन देते थे । उपासक दगागसूत्र में गोशालक मत के समक्ष ग्रार्हती विचार धारा को विजयिनी बनाने वाले कुण्डकोलिया श्रावक को भगवान महावीर ने "धन्योऽसि कुण्डकोलियाण तुम" कहकर धन्यवाद दिया है ।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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