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________________ जैन धर्म द्रव्य, क्षेत्र, काल और मानव की उसमे व्यवस्था कर दी गई। जिसके अनुसार युगानुरूप समस्त सघ वाह्य विधान मे उचित परिवर्तन कर सके । ध्यान रहे, अचेलकत्व के आग्रह के कारण दिगम्बर आम्नाय मे स्त्री के मोक्ष का द्वार बंद कर दिया गया। इसमे हम आग्रह का विकृत रूप कह सकते है । त्याग की ओर व ढना एक सत्य सिद्धान्त है, जो श्रेयस्कर है। किन्तु द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव के महत्व को भुलाकर नही, वरन् उनको योग्य कसौटी पर कसकर ही किसी सिद्धान्तानुसार प्रगति करना अधिक श्रेयस्कर होता है। भगवान् महावीर की अन्य धर्मों पर छाप श्रमण सस्कृति के प्रतिष्ठापको मे महावीर का एक अनन्यतम स्थान है। धार्मिक अन्धश्रद्धा, जनता की रूढिवादिता, और पाखंड के ठेकेदारो के विरुद्ध महावीर ने क्राति की, और सात्विक धर्म का प्रचार किया। ____ आत्मशुद्धि और राग-द्वेषनाग की ओर उनका प्रधान उद्देश्य था । जिसका प्रभाव तत्कालीन वैदिक परम्परा पर अधिकतम पड़ा। भारत मे श्रमण और ब्राह्मण के नाम से उभयमुखी आर्यसंस्कृति का संस्मरण हुआ। जैन और बुद्ध धर्म के विचारो को श्रमण-सस्कृति वैदिक तथा वैष्णवो के सम्प्रदायो की विचारधारा को वैदिक-संस्कृति के नाम से पुकारा जाता है। वैदिक एवं जैन संस्कृतियां-समन्वयात्मक वृत्ति से परिपूर्ण इतिहास तथा वैदिक वाडमय इस बात का साक्षी है कि वैदिको के पास श्रमण तथा साधु-सस्था के लिए कोई सुव्यवस्थित विधान-शास्त्र तथा प्राचारशास्त्र उपलब्ध नहीं है। यद्यपि वौद्धो और जैनों के पास भी गृहस्थो के लिए धर्म-विधान के सिवाय गृहस्थवर्म को बताने वाले धर्मग्रथो का अभाव है। इसीलिए मै समझता हूं कि ये दोनो संस्कृतिया अपने आप मे नही, अपितु । समन्वयात्मक वृत्ति मे ही परिपूर्ण है। यदि हम वैदिक संस्कृति को पेट और चरण कह सकते हैं, तो जैन और वौद्ध मस्कृति को हृदय और मस्तिष्क कह सकते है। सस्कार और श्राद्ध, कर्म और त्याग, निवृत्ति और प्रवृत्ति, इन सवका मेल जीवन के क्षेत्र में यदि आवश्यक है तो वैदिक और जैन सस्कृति का भी समन्वय अत्यधिक उपयोगी है।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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