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________________ जैन धर्म वस्त्रो के प्रति कठोर नीति नहीं अपनाई । मोक्ष के लिए पारमार्थिक लिग, साधन, जान, दर्शन चारित्र रूप प्राध्यात्मिक सम्पत्ति का निर्देश किया और सचेल, अथवा अचेल को लौकिक लिंग मात्र कह कर और उसे पारमार्थिक नीमा से बाहर कहकर, उपेक्षा कर दी गई। यही कारण थे कि समाज मे सचेल और अचेल की कोई निश्चित और नियमित रूपरेखा तैयार नहीं हो सकी। महावीर ने महाव्रत और प्रतिक्रमाणात्मक अन्त शुद्धि पर जितना दढना से बल दिया उतनी दृढ़ता से सचेल अथवा अचेल के एकान्तिक पक्ष पर नही दिया । यही कारण है कि उनके समय मे तो विवाद समन्वयात्मक सिद्धान्तो से और पापिात्यिक और महावीर मघ मे ममझोतेवादी दृष्टिकोण से समूत्रे संघ मे प्रेम से काम चलता रहा, किन्तु जम्बू स्वामी एव भद्रबाहु जी के सर्वतोमुखी व्यक्तित्व के समाज मे से उट जाने से सचेल और अचेल का पुराना विवाद श्वेताम्बर और दिगम्बर नाम से फूट निकला। इतना निश्चित है कि भगवान महावीर ने जव गृहत्याग किया तब एक वसन चेल धारण किया था, क्रमनः उन्होने हमेशा के लिए उस वस्त्र का त्याग कर दिया और पूर्णत अचेल हो गए। आचाराग सूत्र १ श्रुत, अध्याय ६ उद्देशा प्रथम मे उनकी इस अचेलत्व भावना का स्पष्ट वर्णन किया गया है। जैसे कि - णोचेविमेण वत्थेण, पिहिस्सामि तसि हेमते । से पारए आवकहाए, एय खु अणुधम्मिय तस्स ।। सवच्छरं साहियं मासं, जंण रिक्कासि दत्थगं भगवं । अचेलए ततो चाई, तं वौसज्ज वत्थ मणगारे । णो सेवती य परवत्य, परपाए वि सेण भुजित्था। परिवज्जियाण ओमाणं, गच्छति संर्खाड असरणाए॥ १९ अर्थात् भगवान महावीर के दीक्षा धारण समय इन्द्र प्रदत्त एक देववस्त्र प्राप्त हुआ था किन्तु भगवान् ने यह निश्चय किया कि मैं इसे छोडकर ही शीत नहूगा और फिर उन्होने ग्राजीवन वस्त्र धारण नही किया। इस देव-दत्त वस्त्र को पन्म्परा स्त्र मे ही स्वीकार किया और तेरह मास उपरान्त उतार दिया।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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