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________________ अतीत की झलक से भी अधिक प्राचीन है । वेदो में उसका वर्णन पाता है। दत्तात्रेय नवीन है क्योंकि उपनिषद् काल मे उनका प्रादुर्भाव हुआ है। दनात्रेय याजिक क्रिया काण्ड और बाह्य शीच का खण्डन करते हुए कहते है - "हे सुव्रत, जो मनुष्य ज्ञान-गौच को त्याग कर बाह्य जल आदि से गौच मानने की भ्रमणा मे पडा है, वह सुवर्ण को त्याग कर मिट्टी के ढेले का संग्रह करता है ।" क्या कोई ब्राह्मणधर्मी ऋपि इस प्रकार उद्गार प्रकट कर सकता है ? दूसरी जगह वही कहते है -- "हे मुने । अहिंमा आदि साधनो द्वारा अनुभवात्मक ज्ञान प्राप्त करके प्रात्मा अविनाशी ब्रह्मपद प्राप्त करता है।" उन्होंने दश यमो का प्रतिपादन किया और उनका समर्थन किया है। तप के विषय में वह कहते है ---"हे मने । कृच्छचान्द्रायण यादि को वैदिक लोग तप मानते है, किन्तु हम उसे तप स्वीकार करते है जिसके द्वारा आत्मा ससार भ्रमण से छूटकर, बन्धन विमुक्त होकर मुक्ति प्राप्त कर सकता है।" दत्तात्रेय जी ने अपने को वैदिको से पृथक् प्रकट किया है। अतएव अमंदिग्ध रूप में कहा जा सकता है कि वे श्रमणगाग्वा के प्राचार्ग थे, किन्तु वैदिक लोग भी उनका सम्मान करते थे। यद्यपि श्रमण परम्परा मे समय-समय पर अनेक विचारक सन्त सम्मिलित होते रहे है और महावीर काल मे तो महात्मा बुद्ध जैसे प्रथमकोटि के सन्त भी उसमें मम्मिलित हुए, किन्तु वेदो और उपनिपदो से पूर्व जैनधर्म के प्रवर्तक ऋपभदेव की परम्परा के अतिरिक्त अन्य किसी प्रभावशाली धर्म या धर्मप्रवर्तक का परिचय नहीं मिलता। इस कारण दत्तात्रेय के विचार जैनधर्म से ही प्रभावित स्वीकार किए जा सकते है। ____दत्तात्रेय यद्यपि ब्राह्मणो और श्रमणो के मध्य की एक महत्त्वपूर्ण कडी के गरूप मे रहे, फिर भी यह स्पष्ट है कि ब्राह्मणो का क्रियाकाण्ड उन्हे अभीष्ट नहीं था। पुराणों में जैनधर्म उपनिपदो के अनन्तर प्राचीनता के नाते पद्म-पुराण की गणना की जा सकती हैं। पद्मपुराण मे जैनधर्म का विस्तृत वर्णन मिलता है । वैदिक साहित्य की यह एक विशेपता रही है कि उसमे जैनधर्म की स्तुति तो ब्रात्यधर्म, परम
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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