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________________ जैन धर्म पुरुषार्थ पर खड़ा करके मनुप्य को स्वावलम्बी बना दिया। प्रजा के हित के लिए लेख, गणित, नृत्य, गीत, सौ प्रकार की गिल्प-कला आदि, बहत्तर कलाएं पुरुषो की और चौसठ कलाएँ स्त्रियो की निर्माण की। (जम्बूद्वीपप्रनप्ति, ऋषभ चरित:) सर्वप्रथम अपनी पुत्री ब्राह्मी को लिपि की शिक्षा दी और इस कारण वह लिपि आजतक ब्राह्मी लिपि के नाम से विख्यात है। कृषि, गो-पालन, भाण्डनिर्माण आदि समस्त कर्म, उत्पादन तथा वितरण व्यवस्था सव भगवान् ऋपभदेव की ही देन है। ____ऋपभदेव जी की सुनन्दा और सुमगला नामक दो पत्नियां थी। दोनों से दो कन्यानो और सौ पुत्रो का जन्म हुा । जिनमे दो भरत और बाहुबली विशेष विख्यात हुए। लोकजीवन की सुव्यवस्था करने के पश्चात् प्रजा का भार अपने पुत्रो को सौप कर भगवान ऋषभदेव परिग्रह से विमुक्त हो दीक्षित हो गए। एक हजार वर्ष तक निरन्तर कठोर तपश्चरण करने के पश्चात् वे जिन वीतराग एवं पूर्ण ज्ञानी हो गए । तत्पश्चात् उन्होने समाज-व्यवस्था की तरह धर्मव्यवस्था करके मानव-जीवन को एक प्रशस्त और उच्चतर ध्येय प्रदान किया। गृहस्थो के लिए अणुव्रतो का तथा सावुप्रो के लिए महाव्रतो का उपदेश दिया। भगवान् के धर्मोपदेश की वह विमल स्रोतस्विनी अति दीर्घ मार्ग को पार करती हुई आजतक प्रवाहित हो रही है। ____ यह उल्लेखनीय है कि भगवान् ऋषभदेव को वैदिकधर्म ग्रथो मे भी परमोच्च पद प्राप्त हुआ है और ऋग्वेद मे अनेक स्थलो पर उनका नाम्मोल्लेख हुआ है और उनकी स्तुति की गई है। एक जगह लिखा है- "हे ऋषभनाथ सम्राट् ! ससार में जगतरक्षक व्रतो का प्रचार करो। तुम्ही इस अखण्ड पृथ्वीमण्डल के सार हो, त्वचा रूप हो, पृथ्वीतल के भूषण हो, और तुमने ही अपने दिव्यज्ञान द्वारा आकाश को नापा है।" (ऋग्वेद मू० अ०३) कहने की आवश्यकता नही है कि ऋग्वेद के इस मन्त्र मे भगवान् को व्रतवर्म का प्रचारक और अनन्त जानी स्वीकार किया गया है। अन्यान्य स्थलो पर भी उनकी अत्यन्त भक्तिमय स्तुति की गई है। उनके व्रतवर्म का भी वहाँ उल्लेख मिलता है। श्रीमद्भागवत मे कहा है- "हे परीक्षित । सम्पूर्ण लोक, देव, ब्राह्मण और गौ के परम गुरु भगवान् ऋषभदेव का यह विशुद्ध चारित्र मैने तुम्हे सुनाया है। यह चारित्र मनुष्यों के समस्त पापो को हरण करने वाला है।"
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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