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________________ २४६ जैन धर्म से प्रभाव का नाग होता है, और विनय मे नम्रता तथा विवेक को बल मिलता है ! जैन शिष्टाचार का अर्थ है विनय । ' ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र के प्रति श्रद्धा रखना और इन गुणो के भारक के प्रति आदर रखना जैनागम मे बहुत बड़ा तप बताया है । " मन, वचन, तथा काया को प्रशस्त, पापकारी तथा वृणाकारक कार्य से हटाकर प्रशस्त, पुण्य-कारक तथा उपयोगपूर्वक उठने-बैठने की सभ्यता की ओर उन्मुख होना महान् तप बताया गया है । 3 जैनागम मे लोकव्यवहार को ठीक ढंग से सावने के लिए भी लोकीपचार विनय का उल्लेख किया है । अध्यापक गुरु की आज्ञापालन, श्रादर के साथ गुरु से व्यवहार करना, ज्ञानदान निमित्त नम्रतापूर्वक दान देना, दुखी जीवो के प्रति कोमल भाव रखना, देशकाल की विज्ञता और सब से प्रेममय ग्रात्मीयपन के अनुकूल रूप से स्नेहभरा व्यवहार करना भी जैनधर्म के अनुसार धर्म की प्रधानतम सेवा है । " साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका अरिहंत, सिद्ध, देव, धर्म, तथा गुरु के प्रति श्रगातना - श्रनादरभाव नही रखना ही जैन साधु और श्रावको का परम कर्त्तव्य है । जैनगास्त्रो मे ग्रगातना का बहुत विस्तृत वर्णन है, गुरु की प्रशासना ३२ प्रकार की बताई जाती है । गुरु के श्रागे खडा होना, गुरु के आसन पर बैठ जाना, गुरु के आगे चलना, तुकार का प्रयोग करना, आदि ग्रनादर भावो का उल्लेख किया गया है । इसी प्रकार विशिष्ट व्यक्तियो के प्रति भी जैनो के शिष्टाचार का उग नियत है जैसे कि ---- १. देव और गुरु के प्रति : - जैन श्रमणोपासक जब तीर्थकर भगवान् को उपदेश सभा मे ग्रथवा साधु के निवास स्थान पर जाता है, तो उसे पाँच बाते करनी चाहिएँ, जो जैन परिभाषा मे पॉच अभिगम के नाम से प्रसिद्ध है । वे ये है- १. भगवती सूत्र, श० २५ । २ ܕܕ 13 " ३. 13 " 11 ४. भगवती सूत्र श० २५ ।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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