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________________ २४२ जैन धर्म जैन संघ मुख्यतया दो भागो मे विभक्त है-त्यागी और गृहस्थ । लागी वर्ग के लिए पूर्ण अपरिग्रही, अकिंचन रहने का विधान है। जैन त्यागी सयमसाधना के लिए अनिवार्य कतिपय उपकरणो के अतिरिक्त अन्य कोई वस्तु अपने अधिकार मे नही रखता। यहाँ तक कि अगले दिन के लिए भोजन भी अपने पान नहीं रख सकता। उसके लिए अपरिग्रह महाव्रत का पालन करना अनिवार्य है। गृहस्थवर्ग अपरिग्रही रहकर संसार-व्यवहार नहीं चला सकता और इम कारण उसके लिए पूर्ण परिग्रहत्याग का विधान नहीं किया गया है, उसे सर्वथा अनियन्त्रित भी नही छोडा गया है। गृहस्थ को श्रावक की कोटि में आने के लिए अपनी तृष्णा, ममता एवं लोभ-वृत्ति को सीमित करने के लिए परिग्रह का परिमाण कर लेना चाहिए। परिग्रह-परिमाण श्रावक के पाँच मूल व्रतों मे अन्यतम है। इस व्रत का समीचीन रूप से पालन करने के लिए श्रावक को दो व्रत और अंगीकार करने पड़ते है, जिसका भोगोपभोग परिमाण और अनर्थदंड-त्याग के नाम से गृहस्थधर्म के प्रकरण मे उल्लेख किया जा चुका है। परिमित परिग्रह का व्रत तभी ठीक तरह से व्यवहार में आ सकता है, जब मनुप्य अपने भोग और उपयोग के योग्य पदार्थों की एक सीमा बना ले और माथ ही निरर्थक पदार्थों से अपना संबंध विच्छेद कर ले। इस प्रकार अपरिग्रह व्रत के लिए इन सहायक व्रतो की बड़ी आवश्यकता है। अर्थतप्णा की आग मे मानव-जीवन भस्म न हो जाय, जीवन का एक मात्र लक्ष्य धन न वन जाय, जीवन-चक्र द्रव्य के इर्द-गिर्द ही न घूमता रह, आर जीवन का उच्चतर लध्य ममत्व के अधकार में विलीन न हो जाय, इसके लिए अपरिग्रह का भाव जीवन मे आना ही चाहिए। यदि अपरिग्रह भाव जीवन में आ जाय, और सामूहिक रूप मे आ जाय तो अर्थवैषम्यजनित सामाजिक समस्याए स्वत ही समाप्त हो जाती हैं। उन्हें हल करने के लिए समाजवाद या साम्यवाद या अन्य किमी नवीन वाद की आवश्यकता ही नहीं रहती। जैन धर्म का यह अपरिग्रहवाद आधुनिक युग की ज्वलन्त समस्याओ का सुन्दर समाधान है, अतएव समाजशास्त्रियों के लिए अध्ययन करने योग्य है। इससे व्यक्ति का जीवन भी उच्च और प्रशस्त बनता है और साथ ही समाज की समस्याएँ भी सुलझ जाती है।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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