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________________ जैनधर्म की विशेषताएं २३९ तब बाईनवे तीर्थकर भगवान् अरिष्टनेमि ने अहिमा की प्रतिष्ठा के लिए जोरदार प्रयास किया। उन्होने विवाह के लिए श्वसुरगृह के द्वार तक पहुँच कर भी पशुपक्षियो की हिना के विरोध मे विवाह करना अस्वीकार करके तत्कालीन क्षत्रियवर्ग में भारी मनमनी पैदा कर दी। वासूदेव कृष्ण के भाई अरिष्टनेमि का वह गाहमपूर्ण उन्मर्ग नायक हया और ममाज मे पशो और पक्षियो के प्रति व्यापक महान भनि जागी। उनके पश्चात् तीर्थकर पार्श्वनाथ ने सर्प जैसे विपैले प्राणियो पर अपनी करुणा की वर्षा करके, लोगो का ध्यान दया की ओर आकर्षित किया। फिर भी धर्म के नाम पर जो हिमा प्रचलित थी, उसे निग्गेप करने के लिए चरम नीर्य कर भगवान् महावीर ने प्रभावशाली उपदेश दिया। आज यद्यपि हिसा प्रचलिन है, फिर भी विचारवान् लोग उसे धर्म या पुण्य का कार्य नहीं समझते, बल्कि पाप मानते है। इस दृष्टिपरिवर्तन के लिए जैन-परम्पग को बहुन उद्योग कन्ना पडा। अवतारवाद जैन बर्म के विशिष्ट सिद्धान्तो पर विचार करते समय एक वात अनायास ही ध्यान मे आ जानी है। वह है उसके अवतारवाद की मान्यता । प्रात्गा की चन्म और विशद स्थिति क्या है, यह दर्शनशास्त्र के चिन्तन का एक प्रधान प्रश्न रहा है। विभिन्न दर्शनो ने इस पर विचार किया है और अपनाअपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। बौद्वदर्शन के अनुसार चित्त की परम्परा का अवरुद्ध हो जाना, आत्मा की चरम स्थिति है। इस मान्यता के अनुसार दीपक के निर्वाण की भाँति आत्मा शून्य मे विलीन हो जाता है। कणाद मुनि का वैशे पिकदर्शन प्रात्मा की अन्तिम स्थिति मुक्ति स्वीकार करता है, पर उसकी मुक्ति का स्वरूप कुछ ऐसा है कि उसे समझ लेने पर अन्त - करण में मुक्ति प्राप्त करने की प्रेरणा जागृत नहीं होती। कणाद ऋपि के मन्तव्य के अनुसार मुक्त ग्रात्मा जान और सुख से सर्वथा वंचित हो जाता है। ज्ञान और मुग्व ही प्रात्मा के अमाधारण गुण है और जब इनका ही सम्ल उच्छेद हो गया तो फिर क्या आकर्षण रह गया मुक्ति मे ? ससार मे जितने अनादिमुक्त एकेश्वरवादी सम्प्रदाय है, उनके मन्तव्य के अनुसार कोई भी आत्मा, ईश्वरत्व की प्राप्ति करने में समर्थ नही हो सकता। ईश्वर एक अद्वितीय है। जीव जाति से वह पृथक् है। मसार मे अधर्म की वृत्ति
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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