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________________ २३४ जैन धर्म सुदृढ नीव पर अवस्थित और विज्ञानसम्मत है तो उनका रहस्य भगवान् महावीर का तपोजन्य परिपूर्ण तत्त्वज्ञान ही है। सृष्टि रचना-उदाहरण के लिए सृष्टि रचना के ही प्रश्न को ले लीजिये, जो दार्शनिक जगत् मे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आधारभूत है। विश्व मे कोई दर्शन या मत न होगा, जिसने इस गम्भीर प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास न किया हो। क्या प्राचीन, और क्या नवीन, सभी दर्शन इस प्रश्न पर अपना दृष्टिकोण प्रकट करते है। मगर वैज्ञानिक विकास के इस युग मे उनमे अधिकाश उत्तर कल्पनामात्र प्रतीत होते है। इस मबध मे महात्मा बुद्ध विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जिन्होने बिना किसी सकोच या झिझक के स्पष्ट कह दिया कि लोक का प्रश्न अव्याकृत है-अनिर्णीत है। इसका प्रागय यही लिया जा सकता है कि लोक-व्यवस्था के सबब मे निर्णयात्मक रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। इस स्पष्टोक्ति के लिए गौतम बुद्ध धन्यवाद के पात्र है, मगर लोक के विषय मे हमारे अन्त करण मे जिज्ञासा सहज रूप से उदित होती है, उसकी तृप्ति इस उत्तर से नहीं हो पाती। और जब हम जिज्ञासा तृप्ति के लिए इस विपय के विभिन्न दर्शनो के उत्तर की ओर ध्यान देते है, तब भी निराशा का सामना करना पडता है। सृष्टि रचना के विपय मे अनेक प्रश्न हमारे समक्ष उपस्थित होते है। प्रथम यह कि सृष्टि का विधिवत् निर्माण हुआ है या नहीं? अगर निर्माण हुआ है, तो इसका निर्माता कौन है ? यदि निर्माण नहीं हुआ तो सृष्टि कहाँ से आई ? सृष्टि-निर्माण से पहले क्या स्थिति थी ? इन प्रश्नो पर दार्गनिक कभी सहमत नही हो सके। एक कहता हैसृष्टि देव' के द्वारा उत्पन्न की गई है। तो दूसरा कहता है---"ब्रह्म या ब्रह्मा नं इसकी रचना की है।' किसी का मत है कि ईश्वर इसका निर्माता है, और किसी के मतानुसार प्रकृति से सृष्टि बनी है। कोई स्वयभू को सृष्टि का कर्ता कहते है। कोई अडे से उसकी उत्पत्ति बतलाते है। उनकी मान्यता के अनुसार यह चराचर विश्व, अडे से उत्पन्न हुआ है। जब ससार में कोई भी वस्तु नही थी तब ब्रह्मा ने पानी मे एक अडा उत्पन्न किया। बढ़ते-बढते वह बीच मे से फट गया। उसके दो भागो मे से एक से ऊर्ध्व-लोक की और दूसरे से अधोलोक की उत्पत्ति हुई। १. सूत्र कृतांग ३० श्रु०, भ० १, उ० ३ ।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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