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________________ जैन धर्म की परम्परा जैनाचार्यो ने तथा जैन मावो ने श्रहिंसा, तप, त्याग की कसौटी पर जो उज्ज्वल स्वरूप विश्व के सामने रखा है, वह ग्राज भी भारत के लिए गौरव की वस्तु है । २२३ सौराष्ट्र में ग्रहिमक भावना को जो उल्लेखनीय प्रश्रय मिला है, वह जैनाचार्यों की ही देन है । उसका फल अनेक रूपो मे हमारे सामने ग्राया । स्वामी दयानन्द ने वेढी का जो ग्रहिमापरक अर्थ किया और महात्मा गाधी ने जो ग्रहिंसानीति ग्रपनाई, उसके पीछे मौराष्ट्र का अहिंसामय वातावरण ही कारण है । गाधी जी को तो जैन सन्त बेचर स्वामी ने विलायत जाने से पूर्व मद्य, मास और परस्त्रीगमन का त्याग करवाया था । कवि राजचद भाई ने उन्हें पूर्ण ग्रहिमक बना दिया । ग्राममार ग्रहमा की ओर बढने की सोच रहा है । यह प्रसन्नता की बात हैं । किन्तु जैन मघ ने हिमा से भरी विगत शताब्दियों में ग्रहिमा की जो दिव्य ज्योति जलाए रक्खी वह उसकी भारत को, विश्व को और समस्त मानवता को सब से बडी देन हैं । राजाओं का योगदान भारतीय इतिहास का गहरा ग्रालोडन करने वाले कुछ विद्वानो का मत है कि ब्रह्मविद्या या प्राध्यात्मिक ज्ञान क्षत्रियों में प्रारंभ होकर ब्राह्मणो के पास पहुँचा । जैन इतिहास इस ग्रभिमत की पुष्टि करता है । ऋषभदेव से लेकर महावीर पर्यन्त चीवीमो तीर्थकरो का जन्म राजवशो मे ही हुया था । प्रत्येक तीर्थकर के काल मे ग्रनेकानेक जैन राजा भी हुए । चक्रवर्ती भी हुए, जिन्होने जैनेन्द्रीय दीक्षा धारण की, और जैनधर्म के प्रचार और प्रसार में योग दान दिया । उन सब का इतिहास ग्राज उपलब्ध नही । तथापि भ० महावीर के सममामयिक और उनके पञ्चाद्वर्ती कुछ राजाओ का उल्लेख कर देना ग्रनुचित न होगा, जिन्होने जैन धर्म की प्रभाववृद्धि में योग देकर ग्रुपने को धन्य बनाया है । चेटक तथा अन्य राजा -- राजा चेटक भगवान् के प्रथम श्रमणोपासक थे । वैशाली के ग्रत्यन्त प्रभावशाली और वीर राजा थे । वह ग्रठारह देशो के गणराज्य के अध्यक्ष थे । उन्होने प्रतिज्ञा की थी कि मैं अपनी कन्याएँ जैन के सिवाय किसी अन्य को नहीं दूंगा। नीति की प्रतिष्ठा और शरणागत की रक्षा के लिए चेटक को एक बार मगधराज कूणिक के साथ भीषण मग्राम करना पडा था । सिन्धु सौवीर के उदयन, ग्रवती के प्रद्योत, कौशाम्बी के शतानीक
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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