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________________ चारित्र और नीतिशास्त्र २१५ याकुल-म्यानुल हो जाता है, परन्तु नत्वदनी पुग्प अनासक्त होने के कारण मध्यस्वभाव में स्थिर रहता है और जीवन भर की साधना के मन्दिर पर स्वर्णकाला चटा लेता है। वह परम मान्न एव निराकुल भाव से अपनी जीवन यात्रा पूरी करता है. और इस प्रकार अपने वर्तमान को ही नहीं, भविप्य को मी मगलमय बना लेता है। गयन नीर धर्म मर्यादायो में आबद्ध जीवन ही मोकाट नीयन है। मणयम का कठोर गाधना मे जीवन की उद्दाम और उन्द्र पल वृत्तियों का नियन्त्रित करना भयमी पुस्प के लिए आवश्यक है। जैन धर्म जीवन मे पलायनवादी नीति पर विश्वास नहीं रखता, अपितु सयम और नतोप, ग्वाध्याय और ना विवेव और वैराग्य द्वारा इगी जीवन में आध्यात्मिक यन्तियों का विकास नजपद पा लेना ही, यह ध्येय सिद्धि मानता है। जैनधर्म रहता कि "जब तप जीयो, विवेक और मानन्द से जीत्रो, ध्यान और समाधि की नन्मयता में जीयो, अझिा और सत्य के प्रमार के लिए जीरो, और जब मृत्यु आये तो प्रात्म-साधना की पूर्णता के लिए, पुनर्जन्म में अपने आध्यात्मिक लक्ष्यमिद्धि के लिए अयवा मोक्ष के लिए, मत्यु का भी, समाधिपूर्वक वरण करो। मृत्यु के आने से मन की एकाग्रता, ध्यान तन्मयता तथा तदाकारता का आनन्द लो। किन्तु जगत् में जीवन को ऐच्छिक इप्ट, प्रिय और मुखद समझा गया है, और मृत्यु को अप्रिय, भयावह, तया अनिष्टकारक माना गया है। यही कारण है कि मृत्यु के समय साधक यदि मोह का त्याग न कर पाया तो जीवन की साधना पर कालिन्य पुत जाती है और दोनो जन्म वर्वाद हो जाते है । भगवान् ने मृत्यु विज्ञान के विगद विवेचन मे मृत्यु के भी १७ प्रकार बताये है ---- १ प्रावीचिमरण क्षण-क्षण मे आयुक्षय होती है, यह क्षण-क्षण का मरण है, मृत्यु । २ तद् भवमरण शरीर का अन्त, देहान्त हो जाना। ३ अवभि मरण आयुपूर्ण होने पर मृत्यु का होना । ४. पाद्यन्तमरण दोनो भवो मे एक ही प्रकार की मत्यु का होना। ५ बालमरण ज्ञानदर्शन हीन होकर विप-भक्षण आदि से मरना। ६ पण्डित मरण समाधि भाव के साथ देह त्याग करना। ७. श्रारान मरण सयम पुष्ट होकर मरना। ८. वालपण्डित मरण - श्रावकपने मे मरण अर्थात् अणुव्रत ही धारण कर मरना।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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