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________________ २०४ जैन धर्म चार भावना इन वारह भावनाओ के अतिरिक्त साधक के जीवन को उन्नति के शिखर की ओर ले जाने के लिए चार भावनाए और है-मैत्री, प्रमोद, करुणा, और मध्यस्थ | १. मैत्री - भावना - जब तक साधक के अन्तःकरण में प्राणीमात्र के प्रति मैत्री का भाव विकमित नही होता, तब तक ग्रहिसा का पालन भी नही हो सकता दूसरो के प्रति ग्रात्मीयता के भाव की स्थापना और अपनी तरह दूसरो को दुखी न करने की वृत्ति, अथवा इच्छा, मंत्री कहलाती है। मंत्री भावना का विकान होने पर मनुष्य दूसरे का कष्ट देखकर छटपटाने लगता है, और उनका निवारण करने लिए कोई कसर नही रखता है । मनुष्य की हृदय भूमिका जब मैत्रीभाव से मुसस्कृत हो जाती है, तभी उसमें ग्रहिंसा सत्य आदि के पौधे पनपते है । उनके ग्रन्तकरण से अनायास ही यह शब्द फूट पडते है मित्तो मे सब्वे भूएसु । वैरं मज्झं ण केगई ॥ इस भूतल पर बसने वाले प्राणी, चाह वे मनुष्य हो पशु-पक्षी हो अथवा कीट-पतग हों, मेरे मित्र है । कोई मेरा शत्रु नही है । क्योकि ससार के समस्त प्राणियो के साथ मेरा अनन्त अनन्त वार ग्रात्मीयता का सम्बन्ध हो चुका है । इस प्रकार की मैत्रीभावना की परिधि ज्यो- ज्यो यढ़ती जाती है, ग्रात्मा में समभाव का विकास होता चला जाता है और राग-द्वेष का बीज क्षीण होता जाता है । अन्त मे मनुष्य को ऐसी स्थिति प्राप्त होती है, जहां जीव मात्र में आत्मदर्शन होने लगता है । उस स्थिति में हिसा या पर पीड़ा के लिए कोई अवकाश नही रहता । २. प्रमोद भावना - गुणी जनो को देखकर ग्रन्त करण में उल्लास होना प्रमोदभावना है। प्राय. मनुष्य मे एक मानसिक दुर्बलता देखी जाती है । वह यह कि एक मनुष्य अपने से आगे बढे हुए मनुष्य को देखकर ईर्ष्या करता है । यही नहीं, कभी-कभी ईर्ष्या से प्रेरित होकर वह उसे गिराने का भी प्रयत्न करता है | जब तक इस प्रवृत्ति का नाग न हो जाय, अहिंसा और सत्य आदि टिक नही मकते । इस दुर्वृत्ति को नष्ट करने के लिए प्रमोदभावना का विधान किया गया है ।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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