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________________ चारित्र और नीतिशास्त्र १९५ साडे बारह वर्ष और पन्द्रह दिन तक कठोरतम तपश्चर्या करने के पश्चात् भगवान् महावीर ने सर्वज समदर्शी होकर जो मौनभग किया तो उनके मुख से यही घोय हुग्रा-"मा हण, मा हण ।" किसी प्राणी को मत मारो, मत मारो। किनी का छेदन न करो, न करो। किसी को परिताप न पहुचायो । मारोगे तो मरना पडेगा। छेदोगे तो छिदना पडेगा, भेदोगे तो भिदना पडेगा। परिताप पहुचायोगे तो परितप्त होना पडेगा।" भगवान् ने कहा--जो अरिहन्त अतीत-काल में हो चुके है, वर्तमान में विद्यमान है, और भविष्य मे होगे उन सब का एक ही आदेश और एक ही उपदेश है कि किसी भी प्राणी, भूत, जीव और सत्व को किसी भी प्रकार से ग्लेग न पहुंचाया जाय। यही धर्म शुद्ध, नित्य और साश्वत है । ज्ञानी-जनो ने पूरी तरह अनुभव करके और ससार के स्वरूप का विचार करके इस धर्म की प्ररूपणा की है। छोटे-मोटे मभी प्राणियो को दुःख अप्रिय, और सुख प्रिय है । सभी को जीवन इप्ट और मरण अनिष्ट है। तुम अपने सुख के लिए दूसरो को सतायोगे, तो दूसरे भी अपने सुख के लिए तुम्हे सताएगे । इस प्रकार सभी जीव हिसा के द्वारा सुख प्राप्त करने का प्रयत्न करगे, तो परिणाम मे दु ख ही आगे आएगा । कोई सुखी न हो सकेगा। अतएव जनधर्म ने दृढतापूर्वक यह विधान किया है कि भगवती अहिसा की वरदायिनी छत्रछाया में ही वास्तविक सुख की उपलब्धि हो सकती है । मुनि धर्म वय और योग्यता--विश्व के समस्त धर्म त्याग को प्रधानता देते हैं। परन्तु जैनधर्म ने त्याग की जो मर्यादाए स्थापित की है, वे असाधारण है । वैदिक वर्म के समान जैनधर्म ने त्यागमय जीवन अगीकार करने लिए वय-विशेष का कोई निर्धारण नही किया है। वह नहीं कहता कि जीवन के तीन चरण बीतने के बाद अन्तिम चौथा चरण सन्यास के लिए है । जीवन क्षण-भगुर है और कोई नही जानता कि कौन जीवन के चारो चरण समाप्त कर सकेगा और कौन नही ? मृत्यु मनुष्य के मस्तक पर सदैव मडराती रहती है और किसी भी क्षण जीवन का अन्त आ सकता है । यही कारण है कि जैन-शास्त्र आश्रम-व्यवस्था को स्वीकार नहीं करते। वय पर जोर न देने पर भी जैनशास्त्रो में त्यागमय जीवन अगीकार
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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