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________________ चारित्र और नीतिशास्त्र की मर्यादा कर लेता है, और निरर्थक सग्रह का भी त्याग कर देता है। इस प्रकार श्रावक का जीवन अत्यन्त सादा बन जाता है। आजीविका के निमित्त उने कोई बड़ा पाप नही करना पड़ता। जिस आजीविका या व्यवसाय से विशेष हिसा होती है, जिससे व्यक्ति में प्रतिकता वटती है, और समाज अयवा राष्ट्र को क्षति पहुचती है, श्रावक उसने दूर रहता है। जैन-परिभाषा मे ऐसा व्यवसाय कर्मादान कहलाता है । प्रादर्ग श्रावक कर्मादान का त्यागी होता है। वृक्षो को काट-काट कर कोयला बनाना, ठेका लेकर जगल को उजाडना, हाथी दात आदि का व्यापार करना, मदिरा जैसी मादक वस्तुप्रो का विक्रय करना। प्राणघातक विष वेचना, मनुष्यो मे बेकारी वढाने वाले यन्त्रो से धधा करना, और दुराचारिणी स्त्रियो से दुराचार करवा कर द्रव्योपार्जन करना, आदि निद्य कर्मों से श्रावक दूर रहता है। उपासक दशाग सूत्र में आदर्श श्रावको के चरित्र वतलाये गये है । उन श्रावको के पास जितनी भूमि, गाये और पूजी मौजूद थी, उतनी ही उन्होने परिग्रह की मर्यादा की थी। प्रानन्द श्रावक के यहा लाखो गाये थी। पाच सौ हलो से खेती होती थी। वह बडा व्यापार करता था फिर भी वह मर्यादा से ज्यादा परिग्रह नहीं होने देता था। इससे जान पडता है कि वह वाणिज्य कृषि और गोपालन करके, अपने सामाजिक कर्तव्य का पालन करता हुआ भी उससे कोई मुनाफा नही उठाता था, या अपने मुनाफे का सर्वसाधारण मे वितरण कर देता था। कहा जा सकता है कि जिसे मुनाफा नहीं कमाना, उसे व्यापार करने की आवश्यकता ही क्या है ? इसका उत्तर यह है कि व्यापार का उद्देश्य व्यक्तिगत स्वार्थसाधना नही, वरन् समाज सेवा करना है। प्रजा के अभावो की पूर्ति के लिए व्यापार होना चाहिए। सव जगह सभी वस्तुएं सुलभ नहीं होती। कोई वस्तु कही इतने अधिक परिमाण में पैदा होती है कि अन्यत्र न भेजी जाय, तो वृथा पडी-पडी सडती रहे । दूसरी जगह उसके अभाव मे लोग कष्ट पाते है। इस परिस्थिति में व्यापारी सामने आता है, और वह जरूरत वाली जगह पर उस चीज को ले जाकर प्रजा के अभाव को दूर करता है। व्यापारी न हो तो प्रजा अभावग्रस्त होकर परेशान हो जाय, क्योकि प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी आवश्यकतानो की पूर्ति के लिए पृथक्-पृथक् आयोजन नही कर सकता।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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