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________________ १८४ जैन धर्म आन्तरिक शत्रुनो को नष्ट करने मे उद्यत, और इन्द्रियो पर काबू रखने वाला हो । इत्यादि गुणो से युक्त गृहस्थ ही श्रावक धर्म का अधिकारी होता है। जैनशास्त्रो मे प्रकारान्तर से श्रावक की २१ विशेषतायो (गुणो) का भी उस्लेख है। यथा १ श्रावक का किसी को कष्ट देने का स्वभाव नही होना चाहिए । २ तेजस्वी और सशक्त स्वभाव वाला हो, अन्तर का सौम्यभाव उसके चेहरे पर प्रतिविम्बित हो। __३ शान्त, दान्त, क्षमाशील, मिलनसार, विश्वास-पात्र और शीतल चित्त हो। ४. अपने व्यवहार से लोकप्रिय हो। ५. क्रूरता से रहित हो। ६ लोकापवाद से डरे, इह-परलोक के विरुद्ध कार्य न करे। ७ गठ, धूर्त एवं अविवेकी न हो। ८ दक्ष हो-व्यवहार कुशल हो और एक नजर मे ही आदमी को परख ले। ६ लज्जागील हो। १० दयावान हो। ११ मध्यस्थभावी हो-भली-बुरी बात सुनकर, या वस्तु को देखकर, राग-द्वेप न करे, आसक्तिशील न हो। १२ सुदृष्टिमान्-अन्तःकरण मे मलीनता न हो, आंखो से अमृत झरे, और सम्यग्दृष्टि हो। १३ गुणानुरागी हो। १४ न्याय युक्त पक्ष ग्रहण करे, अन्याय का साथ न दे । १५ दीर्घदृष्टि हो-भविष्य का विचार करके व्यवहार करे। १६ विशेषज्ञ हो-अर्थात् सत्-असत्, हित, अहित एव गुण अवगुण को परीक्षा करने मे कुशल हों। १७ वृद्धानुगामी हो, अर्थात् अनुभवी व्यक्तियो के अनुभव का लाभ लेता हुअा प्रवृत्ति करे। १८. विनयवान् हो। १६ रग-रग मे कृतज्ञता भरी हो।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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