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________________ .....००००.....०००००००००००००००००..०.०० ००००००००००.००.००० ...................००००००००............................. न हु जिणे अज्ज दिस्सई, बहुमए दिस्सई मग्गदेसिए । संपइ नेयाउए पहे, समय गोयम मा पमायए ॥ बुद्धे परिनिव्वुडे चरे, गामगए नगरेव संजए। संतिमन्गं च बूहए, समयं गोयम! मा पमायए ॥ -उत्तराध्ययन, अ० १०-पा० ३१-३६ । "हे गौतम ! मेरे निर्वाण के बाद लोग कहेगे--निश्चय ही अब कोई जिन नही देखा जाता।" पर "हे गौतम ! मेरा उपदिष्ट और विविध दृष्टियों से प्रतिपादित मार्ग ही तुम्हारे लिए पथप्रदर्शक रहेगा।" ___ ग्राम या नगर जहाँ भी जानो, वहाँ संयत रहकर शान्ति मार्ग का प्रसार करना, अहिंसा मार्ग का प्रचार करना क्योकि : "शान्ति" मार्ग पर चलने से ही धर्म के स्वरूप का साक्षात्कार होता है।" .०००.००.००००००००००००००००............................००००.... .........०००.०००...........००००००........................ जैन धर्म का स्वरूप
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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