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________________ कर्मवाद योग लंगडे से हो जाते है । कपायो का अन्त होते ही आत्मा की पूर्णता प्राप्त हो जाती है और घातिक कर्मों का विध्वस हो जाता है । घातिक और अघातिक शन्नो से कर्मों की अाक्रमण-शक्ति और वर्वरता को तथा मन्दता को सूचित किया गया है । जीव की अनन्त ज्ञान दर्शन अादि शक्तियो का घात करने वाले कर्म घातिक कहलाते है। उनमें कुछ सर्वघाती होते हैं और कुछ देशघाती। कुछ कर्म ऐसे हल्के होते है जो जीव के गुण विकास मे बाधक नहीं होते अथवा व्याघात नही पहुचाते । वे अघातिक कहलाते हैं। उनकी विद्यमानता से सम्पूर्ण मुक्ति नही हो पाती, तथापि वे सहन ही नष्ट हो जाते है । वे जीवन्मुक्ति मे वाधक नही होते है। कर्मों का वर्गीकरण-कर्म मूलत एक ही प्रकार के होने पर भी जीव के अध्यवसायो और मनोविकारो की तरतमता के कारण अनेक प्रकार के हो जाते है । अध्यवसाय और मनोविकार एक ही प्राणी के पल-पल मे पलटते रहते है, अतएव उनकी कोई सस्या निर्धारित नही की जा सकती है, फिर जगत् के जीव अनन्त है। क्योकि कर्मों का स्वभाव, स्थितिकाल परिमाण और प्रभाव अध्यवसायो के अनुरूप ही निश्चित होता है । तथापि सुगमता से समझने के उद्देश्य से स्वभाव के आधार पर कर्म के आठ विभाग किये गए है ' -- १ ज्ञानावरण, २ दर्शनावरण, ३ वेदनीय, ४ मोहनीय, ५ आयुष्य, ६. नाम, ७ गोत्र, ८ अन्तराय । कर्मों का स्वभाव-- १. ज्ञानावरण--बादलो का ववडर जैसे सूर्य को आच्छादित कर लेतां है, उसी प्रकार जो कर्म पुद्गल हमारे ज्ञानतन्तुओ को सुप्त और चेतना को मूच्छित बना देते है, वे ज्ञानावरण स्वभाव वाले कहलाते है । ज्ञान पाँच प्रकार के है, अतएव उसे आवृत करने वाला ज्ञानावरण कर्म भी पॉच प्रकार का है: १ मतिज्ञानावरण, २ श्रुतज्ञानावरण, ३. अवधिज्ञानावरण, ४ मनः पर्यायज्ञानावरण, ५ - केवलज्ञानावरण । २ दर्शनावरण--राजा के दरवार मे जाते हुए पुरुष को जैसे द्वारपाल १. प्रज्ञापनासूत्र, पद २१, उ० १, सू० २९९ २ उत्तराध्ययन, सूत्र अ० ३३, गा० २-३ ।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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