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________________ ...................................०००....००००००००.००० .........०००००००००००००००००० ..........००००.० ० 'अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाणय सुहाणय । अप्पा मित्तममित्तं च, दुपठ्ठिये, सुपओि !' आत्मा ही सुख और दु.ख को उत्पन्न करने, और न करने वाला है। आत्मा ही सदाचार से मित्र और दुराचार से अमित्र (गत्रु) है। --उत्तराध्ययन २०, ३७। मानव अपने भाग्य का स्वयं विधाता है । अदृष्ट अथवा किसी अन्य प्रकार की रहस्यात्मक सत्ता की पराधीनता को जैनधर्म स्वय एक मानसिक दासता समझता है। शुभ-कर्म और अशुभ-कर्म फल देने की शक्ति स्वय रखते है। जैसे परमाणु और परमाणुगों के परिवर्तन की शक्ति परमाणु से भिन्न किसी सत्ता के पास मे नही होती है । परिवर्तित होना, यह तो परमागु का ही स्वयं का गुण है। ठीक इसी प्रकार ईश्वर, देव आदि किसी के माध्यम और किसी के अनुग्रह पर हमारा भाग्य अवलम्बित नहीं है और अपने भाग्य का विधान हमने स्वय निर्माण किया है। हमारी क्रिया, हमारे यौगिकस्पन्दन, काषायिक सस्पर्ग तथा हमारा वातावरण और भावना की मंदता या तीव्रता, कर्म के परमाणो का हमारी आत्मा के साथ मे बन्धन जोडते है, जो अवसर प्राप्त होते ही हमारे अन्तर्मन को फल की ओर प्रेरित कर देते है। यह निश्चित है कि जैनधर्म आत्मा को कम करने मे स्वतत्र मानता है, कितु भोगने मे आत्मा कर्मो के आधीन हो जाती है। 'शुभ करो, शुभ होगा'--'अशुभ करो, अशुभ होगा' यही कर्मवाद का सिद्धान्त है। .००००००००००००००००००००............००००००००००००० .......................०००००००००००००००००००००० कर्मवाद
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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