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________________ आध्यात्मिक उत्क्रान्ति १४९ ११ उपशान्तमोह गणस्थान - उपशान्तकपाय वीतराग छद्मस्थ । १२ क्षीणमोह क्षीणकपाय वीतराग छद्मस्थ । १६ सयोगिकेवली सशरीरमुक्त (जीवन्मुक्त) १४. अयोगिकेवली अशरीरीसिद्ध (पूर्णमुक्त) १ मिथ्यात्वगुणस्थान--जब आत्मा में यथार्थ विश्वास और यथार्थ वोध के स्थान पर अयथार्थ अाग्रह से एकान्तता का अभिनिवेश, पभान्धता आदि दुर्गुणो का समावेश होता है, उस समय की जीव की स्थिति मिथ्यात्त्वगुणस्थान है। मिथ्यात्री सत्य को अमत्, धर्म को अधर्म और कल्याण को अकल्याण मानता है। वह यात्मिक साधना के विषय मे कर्तव्य-अकर्त्तव्य के विवेक से शून्य होता है । जीव की यह मूढ दशा अथवा विकारो की विपरीत दशा मिथ्यात्त्व है। समार की अधिकाश आत्माएँ इसी गुणस्थान मे है। यद्यपि आत्मा के क्रमिक विकास मे मिथ्यात्त्व को गुणस्थान का पद नही मिलना चाहिए, मगर 'गुण' शब्द साधारण है और उसमे लौकिक व अलौकिक सभी का समावेश होता है, इस कारण उसे भी गुणस्थान ही कहा है। यही आत्मसाधना की प्राथमिक भूमिका है । यही से आत्मा मिथ्यात्त्व का क्षय, उपशम या क्षयोपशम करके चतुर्थ गुणस्थान पर पहुंचती है। क्षय का अर्थ है 'नष्ट करना' और उपशम का अर्थ है 'शान्त करना' 'दवा देना' । यह ध्यान रखना चाहिए कि मिथ्यात्त्व का क्षय करके सम्यक्त्व की ओर आगे बढ़ने वाली आत्मा का फिर सम्यक्त्व से पतन नही होता, मगर उपशम करके आगे बढ़ने वाली आत्मा का पतन अवश्यभावी है। २. सास्वादन-गुणस्थान--जिस आत्मा ने मिथ्यात्त्व का क्षय-विनाश नही किया था, किन्तु मिथ्यात्त्व को शान्त करके सम्यक्त्व की भूमिका प्राप्त की थी, उसका दवाया हुआ मिथ्यात्त्व थोड़ी-सी देर में फिर उभर पाता है और वह आत्मा सम्यक्त्व से पतित हो जाती है, जब वह सम्यक्त्व' से गिर जाती है परन्तु मिथ्यात्व की भूमिका पर नहीं पहुँच पाती, पतन के पथ पर बढ रही है, फिर भी सम्यक्त्व का किंचित् रसास्वादन कर रही है, उस समय की आत्मा की दशा सास्वादन गुणस्थान है । यह स्थिति बहुत थोडी देर तक ही रहती है। ३. मिश्र गुणस्थान--किसी-किसी आत्मा मे ऐसे अर्धसत्य-मिश्रित अध्यवसाय उत्पन्न होते है, जिनमे सत्य और असत्य दोनो का ही मिश्रण होता है। वह दोलायमान अवस्था मिश्र गुणस्थान कहलाती है । यह गुणस्थान मिथ्यात्व से ऊँचा है, किन्तु पूर्ण विवेक के अभाव में सत्य के प्रति दृढ प्रतीत नही होने से इसमे स्थिति डावाडोल रहती है।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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