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________________ सम्याज्ञान (साधन) द्वारा ज्ञान प्राप्त करता है, तो वह स्वार्थानुमान कहलाता है। और जब वह वचनप्रयोग द्वारा किसी अन्य को वही तथ्य समझाता है, तो उसका वह वचन-प्रगेग परार्थानुमान कहलाता है। स्वार्थानुमान ज्ञानात्मक है, और परानुमान वचनात्मक है। परार्थानुमान का शाब्दिक रूप क्या होना चाहिए ? इस विषय को लेकर भारतीय न्यायशास्त्रियो ने बहुत विचार किया है । न्यायदर्शन मे परार्थानुमान के पात्र अवयव स्वीकार किये गये है, जो इस प्रकार है : १. पर्वत मे अग्नि है (प्रतिज्ञा) । २. क्योकि वहां धूम्र है (हेतु) । ३. जहां-जहा धूम्र होता है, वहा-वहा अग्नि होती है (व्याप्ति) जैसे रसोई घर (उदाहरण)। ४ पर्वत मे भी धूम्र है (उपनय) । ५. अतएव अग्नि है (निगमन) जैन तार्किक समझदारो के लिए इनमे से प्रथम के दो अवयत्रो का प्रयोग ही पर्याप्त मानते है । अलवत्ता किनी अवोध व्यक्ति को समझाने के लिए अविक अवयवो का प्रयोग करना आवश्यक हो तो उनके प्रयोग मे कोई हानि नहीं समझते । मगर पांचो अवयवो के प्रयोग को वे अनिवार्य नही समझते । ३. आगम प्रमाण --' श्रुतज्ञान के विवेचन मे पागम प्रमाण का वर्णन किया जायेगा। ४ उपमान प्रमाण -3 प्रसिद्ध पदार्थ के सादृश्य से अप्रसिद्ध पदार्थ का सम्यक् वोध होना उपमा या उपमान प्रमाण कहलाता है। 'गवय गौ के समान होता है' यह वाक्य जिसने सुन रक्खा है, वह व्यक्ति जब अचानक गौ के सदृश पशु को देखता है, तो पहले सुने हुए उस वाक्य का स्मरण करके झट समझ जाता है, कि यह गवय है । इस प्रकार दर्शन और स्मरण दोनो के निमित्त से होने वाला सदृशता का ज्ञान ही उपमान है। १ पंचेविह पण्णतं । २. से कि तं आगमे, अनुयोगद्वार, प्रमाणद्वारम् । ३ से कि त ओवम्मे, अनुयोगद्वार, प्रमाणद्वारम् ।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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