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________________ ११६ जैन धर्म की अपेक्षा प्रकाश तया रग के सहारे ही वस्तु-दर्शन की ज्ञानानुभूति कर । लेती है। काम भोग केवल पाँच ही प्रकार का है, अतः इन्ह ही पॉच इन्द्रिया कहा जाता है । यद्यपि वैदिक साहित्य मे पाँच ज्ञानेन्द्रिय और पाँच कर्मेन्द्रिय रूप से इन्द्रियो के दश भेद माने गए है, और वौद्ध साहित्य मे इन्द्रियों के २२ भेद गिनाए गए है, किन्तु जैन धर्म इन सभी प्रकार के इन्द्रिय भेदो का पाँचों इन्द्रियो मे समावेश कर देता है। जैसे कि पाँचो कर्मेन्द्रियो को, (वाक्, पाणि, पाद पायु और उपस्थ) स्पर्शेन्द्रिय का ही अवान्तर भेद मान लिया गया है, क्योकि इन का मूलाधार त्वम् इन्द्रिय माना गया है। त्वचा ज्ञान तन्तु अर्थात् छोटे-छोटे छिद्र स्पर्श का सवेदन करते है, और छिद्रो तथा रोम कूपो के द्वारा त्वचा के ज्ञान तन्तु वस्तु के स्पर्श का अनुभव कर लेते ह । अत. वाक-पाणि आदि शरीर के अवयवो को पृथक् इन्द्रिय मानने की आवश्यकता नहीं रहती। इन्द्रियो का द्रव्यरूप मूर्त है, और आत्मा सर्वथा अमूर्त । अमूर्त होने के कारण हमे आत्मा की साक्षात् उपलब्धि नहीं होती। फिर भी जिन साधनो से हम प्रात्ना को जानते है, वही साधन 'इन्द्रियाँ' है। 'एक गरीर को देखते ही हम पहचान लेते है कि यह निर्जीव है, और दूसरे पर दृष्टि पडते ही हमे जान हो जाता है कि यह सजीव है । निर्जीव कलेवर मे भी इन्द्रियाँ बनी होती है, मगर वे अपना कार्य नही करती, जब कि सजीव शरीर मे सव इन्द्रियाँ अपना-अपना कार्य करती रहती है। कान सुनते है, आँख देखती है, नाक सूंघती है, हाथ-पैर हिलते है। इन्द्रियो का यह व्यापार आत्मा के अस्तित्व का परिचायक है। इन्द्रियाँ आत्मा के अस्तित्व की परिचायक नही, आत्मा के द्वारा होने वाले मवेदन का साधन भी है। यद्यपि आत्मा स्वभावत अनन्त ज्ञान दर्शनपुज है, तयापि यावरणो के कारण इतना निर्बल बन गया है कि उसे इन्द्रियो का अवलम्बन लेना पड़ता है। अतएव आत्मा की रूपादिविषयक उपलब्धि का साधन भी इन्द्रियाँ ही है। 'इन्द्रियाँ पॉत्र ह-(१) श्रोत्र, (२) चक्षु, (३) घ्राण, (४) रमना और (५) स्पर्शन । - - - - १. नन्दिसूत्र, सूत्र ३०, स्थानांग सूत्र, स्था० ५।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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