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________________ सम्यग्ज्ञान १०७ पुत्र है, और अपने पुत्र देवदास की अपेक्षा से पिता है" इस प्रकार सापेक्ष कथन म सराय के लिए कोई अवकाश नही है। प्रत्येक वस्तु में अपने निज के स्वरूप से सत्ता है तो पर के रूप से असत्ता भी है । "घट घट है', यह जितना सत्य है उतना ही सत्य यह भी है कि 'घट पट नहीं है।' यहां जैसे घटविषयक अस्तित्व घट का ही स्वरूप है, उसी प्रकार पट विषयक नास्तित्व भी घट का ही स्वरूप है अतएव प्रत्येक पदार्थ सत्-असत् रूप है। जी प्रकार घट न एकान्त रूप से नित्य है, और न एकान्त रूप से अनित्य है। द्रव्य के लिहाज से नित्य है, तो पर्याय के लिहाज से अनित्य है।' इस प्रकार वस्तु मे जितने भी धर्म है, सव सापेक्ष है । जिस अपेक्षा से जिस धर्म का विधान किया जाता है, उसी अपेक्षा को सूचित करने के लिए 'स्यात्' गब्द का प्रयोग किया जाता है। इम छोटे-से "स्यात्" अव्यय मे अद्भुत चमत्कार भरा है। यह समस्त विरोधियो को नष्ट कर देता है, और हमें सम्पूर्ण सत्य की झाकी दिलाता है। तात्पर्य यह है कि अनेकान्तात्मक वस्तु के अनेकान्त स्वरूप को प्रकट करने के लिए "स्यात्" शब्द प्रयुक्त किया जाता है। जब हम वस्तु को नित्य कहते है तो हमे किसी ऐसे शब्द का प्रयोग करना चाहिए, जिससे उसमे रही हुई अनित्यता का निषेध न हो जाय । इसी प्रकार जब “अनित्य'' कहते है तब भी ऐसे शब्द का प्रयोग करना उचित है जिससे नित्यता का विरोध न हो जाय । यही बात अन्य धर्मो-सत्ता, असत्ता, एकत्व, अनेकत्व आदि-का कथन करते समय भी समझनी चाहिए । सस्कृत भाषा में ऐसा शब्द "स्यात्" है । "कथचित्" शब्द का भी उसके स्थान पर प्रयोग होता है। किसी भी प्रश्न का उत्तर "हा" या "ना" मे दिया जाता है । इन्ही दोनो के आधार पर सप्तभंगी योजना हुई है । वह सात भग यह है -- १ अस्ति-(है) १ नत्यि जीवा अजीवा वा, णेव सन्नं निवेसए । अस्थि जीवा अजीवा वा, एवं सन्न निवेसए । --सूत्रकृताग, अ० २, ५, १२, १३ ।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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