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________________ १०४ जैन धर्म पितृत्व और पुत्रत्व आदि धर्म विभिन्न अपेक्षाग्रो से सुसंगत होते है, उसी प्रकार प्रत्येक पदार्थ मे सत्ता-असत्ता, नित्यता-अनित्यता, एकता-अनेकता आदि धर्म भी विभिन्न अपेक्षाग्रो से सुसगत है, और उनमे कुछ भी विरोध नहीं है। इस तथ्य को समझ लेना ही अनेकान्तवाद को समझ लेना है। ___ तत्व की विचारणा और सत्य की गवेषणा में सर्वत्र अनेकान्त दृष्टि अपनाई जाय तो धार्मिक सघर्प, दार्शनिक विवाद, पंथों की चौकावंदी और सम्प्रदायो का कलह, मानव सस्कृति की आत्मा को आघात नही पहुचा सकता। इससे समत्वदर्शन की परम पूत प्रेरणा को बल मिलता है, और मनुष्य-दृष्टि उदार, विशाल और सत्योन्मुखी बनती है। समाज, नीति, कला और व्यापार के क्षेत्र मे और साथ ही घरेलू सम्बन्धो मे तो अनेकान्त को स्वीकार करती है। वह एक ऐसी अनिवार्य तत्व व्यवस्था है उसे स्वीकार किये बिना एक डग भी नही चला जा सकता । फिर भी विस्मय की बात है कि दार्शनिक जगत् उसे सर्वमान्य नहीं कर सका। दार्शनिको की इससे वडी दूसरी कोई दुर्बलता, और असफलता शायद नही हो सकती। __ कौन है जो पदार्थों का उपयोग करता हुअा, मिट्टी के नानात्व को स्वीकार न करता हो, एक ही मिट्टी घट, ईट, प्याला आदि नाना रूपो मे हमारे व्यवहारो मे आती है । अाम अपने जीवन काल में अनेक रूप पलटता रहता है। कभी कच्चा, कभी पक्का, कभी हरा और कभी पीला, कभी कठोर और कभी नरम, कभी खट्टा और कभी मीठा होता है। यह उसकी स्थूल अवस्थाएँ है । एक अवस्था नष्ट होकर दूसरी अवस्था की उत्पत्ति मे दीर्घ काल की अपेक्षा होती है । मगर उस बीच के दीर्घ काल मे क्या वह आम ज्यो का त्यो बना रहता है । और सहसा हरे से पीला तथा खट्टे से मीठा हो जाता है ? नही, ग्राम प्रतिक्षण अपनी अवस्थाए पलटता रहता है । मगर वे क्षण-क्षण पलटने वाली अवस्थाएं इतने सूक्ष्म अन्तर को लिए हुए होती है कि हमारी बुद्धि मे नही आती। जब वह अन्तर स्थूल हो जाता है तभी बुद्धि-ग्राह्य बनता है। इस प्रकार असख्य क्षणो में असख्य अवस्था-भेदो को धारण करने वाला आम आखिर तक आम ही बना रहता है। इस तथ्य को जैनदर्शन यो व्यक्त करता है कि-पदार्थ की मूल सत्ता ही, जो एक होने पर भी अनेक रूप धारण करती है, पदार्थ का मूल रूप हैद्रव्य है, और उसके क्षण-क्षण पलटने वाले रूप पर्याय है। उसका निष्कर्ष यह
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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