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________________ १०२ जैन धर्म स्पष्टता के लिए एक उदाहरण लीजिए। घट आपके सामने है। प्राप आखो से घट का रूप और प्राकार ही देख पाते है। मगर घट सिर्फ रूप और आकार मात्र नहीं। ___ आप घट को ऊचा उठाएगे तो आपको उसके कुछ अधिक धर्म प्रतीत होगे, उसका गुरुत्व मालूम होगा, चिकनापन प्रतीत होगा, और भी कुछ मालूम हो सकता है । मगर घट का यह स्वरूप पूरा नही होगा। घट का पूरा स्वरूप समझने के लिए आप किसी तत्व-ज्ञानी की गरण लीजिए। वह आपको बतलाएगा कि घट मे जैसे, रूप, रस, गंध और स्पर्श आदि स्थूल इन्द्रियो से प्रतीत होने वाले गुण है, उसी प्रकार इन्द्रियो से प्रतीत न होने वाले गुण भी है, और ऐसे गुण अनन्त है । ____ अब आपने समझ लिया कि घट मे अनन्त गुण विद्यमान है । फिर भी क्या एक घट का स्वरूप पूरा हो गया ? तत्वज्ञानी कहेगा-"जी नही, अभी तो घट का प्राधा स्वरूप भी आपने नही समझा ।" घट इससे भी कही विराट् है । यहा तक तो घट मे सदैव रहने वाले (सहभावी) गुणो की ही बात हुई। मगर घट मे अनन्त धर्म ऐसे भी है, जो सदैव विद्यमान नहीं रहते, जो उत्पन्न होते और नष्ट हो जाते हैं। ऐसे धर्म क्रमभावी धर्म कहलाते है। उन्हे पर्याय भी कहते है। अच्छा घट, अनन्त सहभावी धर्मो और अनन्त क्रमभावी धर्मों का पिण्ड है। यह जान लेने पर तो घट का पूरा स्वरूप जान लिया, कहा जा सकता है। तत्वज्ञानी कहेगा-"नहीं, यह तो घट की एक ही बाजू है । इसे सत्ता की वाजू समझिए, अभी दूसरी असत्ता की बाजू तो अछूती ही रह गई है।" वह असत्ता की बाजू क्या है ? घट घट है, यह सत्ता की वाजू है, और घट पट नही, मुकुट नही, शकट नही, लकुट नही, कट नही, घट के सिवाय और कुछ भी नही, यह असत्ता की वाजू है। तात्पर्य यह है कि घट में घट से भिन्न जगत के समस्त पदार्थों की असत्ता रूप से जो वृत्ति है, वह भी घट का ही असत्ता रूप स्वभाव है । घटेतर पदार्थ अनन्त है, अतएव घट के असत्ता-धर्म भी अनन्त है। इन सद्भाव और अभाव रूप धर्मों को जान लेना ही घट को पूरी तरह ‘जान लेना कहलाता है। यह अनन्त धर्म ज्ञान के बिना नही जाने जा सकते । अतएव शास्त्र कहता है "जे एग जाणइ से सव्व जाणइ, जे सव्व जाणइ से एगं जाणइ।" जो एक पदार्थ को जानता है, वह सब को जान लेता है, और जो सव को जानता है, वही एक को जान सकता है ।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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