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________________ जन धर्म शब्द के भेद से अर्थ में और अर्थ के भेद से शब्द मे भेद हो जाता है, यह प्रचलित सिद्धान्त इसी दृष्टिकोण पर अवलम्बित है । ७ एवंभूतनय--' यह नय सूक्ष्मतम गाब्दिक विचार हमारे सामने प्रस्तुत करता है। इसका कथन यह है-यदि व्युत्पत्ति के भेद से अर्थ मे भेद हो जाता है तो जब व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ किसी वस्तु मे घटित हो, तभी उस शब्द का प्रयोग करना चाहिए और जव वह अर्थ घटित न हो तब उस शब्द का प्रयोग नही करना चाहिए। एवंभूतनय समस्त शब्दो को क्रियावाचक ही मानता है। संज्ञावाचक गुणवाचक, भाववाचक अथवा अव्यय आदि के नाम से प्रसिद्ध सभी शब्द क्रियावाची ही है। प्रत्येक शब्द से किसी न किसी क्रिया का ही बोध होता है। अतएव जव पदार्थ, जैसी क्रिया कर रहा हो, तब उसी क्रिया के वाचक शब्द से उसे अभिहित किया जा सकता है। उदाहरणार्थ-"अध्यापक" का अर्थ है, पढाने की क्रिया करन वाला तो जब कोई व्यक्ति यह क्रिया कर रहा है, तो तभी उसे अध्यापक कहा जा सकता है । जव वह खाता, सोता या चलता है, तब अध्यापन-क्रिया नही करता और इस कारण उसे अध्यापक भी नही कहा जा सकता। अध्यापन क्रिया न करने पर भी यदि उसे अध्यापक कह दिया जाय तो फिर दुकानदारी या रसोईया को भी अध्यापक कहने मे क्या हर्ज है ? इस प्रकार एवभूतनय क्रिया को ही शब्दप्रयोग का नियामक मानता है। सात नयो के विवेचन से स्पष्ट हो जायेगा कि नयवाद मे अनन्त धर्मो के अखण्ड पिण्ड रूप वस्तु के किसी एक धर्म को प्रधानता देकर कथन किया जाता है। उस समय वस्तु मे गेप धर्म विद्यमान तो रहते है, मगर वे गौण हो जाते है । इस प्रकार सत्य के एक अश को ग्रहण करने वाला ज्ञान ही नय है। नयो द्वारा प्रदर्शित सत्याश और प्रमाण द्वारा प्रदर्शित अखण्ड सत्य मिलकर ही वस्तु के वास्तविक और सम्पूर्ण स्वरूप के वोधक होते है । जैनागमो मे नय सिद्धान्त निरूपण बहुत विस्तार से किया गया है। अनेक अथ केवल इसी विषय को समझाने के लिए लिखे गये है। १. अनुयोगद्वार, नयद्वारम्, गाथा १३९
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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