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________________ ९६ जैन धर्म जन्म लेता है, तो कभी नरक का कीड़ा बन जाता है। इस दृष्टिकोण से आत्मा अनित्य भी है। यहां नित्यताग्राही नय अगर अनित्यताग्राही नय का विरोध न करे, उसके प्रति उपेक्षा रखे और सिर्फ अपने दृष्टिकोण के प्रतिपादन तक ही सीमित रहे तो वह सम्यक्नय कहा जाएगा। इसके विपरीत, जब एक नय अपन दृष्टिकोण के प्रतिपादन के साथ दूसरे नयो के दृष्टिकोण का विरोध करता है तो ऐसा करनेवाला नय मिथ्यानय बन जाता है। सरल शब्दो मे कहना चाहिए-कोई नय तभी तक सच्चा है, जब तक वह दूसरे को झूठा नही कहता । जब उसने दूसरे को झूठा कहा तो वह स्वयं झूठा हो गया। ३. नयभेदः--कहा जा चुका है कि एक वस्तु मे अनन्त-अनन्त धर्म है और उसमे एक एक धर्म को ग्रहण करने वाला अभिप्राय नय कहलाता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि जब धर्म अनन्त है तो नय भी अनन्त होने चाहिएं। वास्तव मे ऐसा ही है। जगत् मे प्रचलित अभिप्राय या वचन-प्रयोग गणना म नही पा सकते तो उनको ग्रहण करने वाले नयो की गणना भी सम्भव नही । इसीलिए जैनदर्शन कहता है : 'जावइया वयणपहा, तावइया चेव हुंति नयवाया।' अर्थात्-जितने वचन के पथ है, या वस्तु सम्बन्धी अभिप्राय है, उतने ही नय के प्रकार है। फिर भी वर्गीकरण के सिद्धान्त का उपयोग किया जाय तो उन समस्त नयो को दो भागो मे वाटा जा सकता है। १ द्रव्याथिकनय और २ पर्यायाथिक नय।। मूल पदार्थ द्रव्य कहलाता है और उसकी विभिन्न और देशो और कालो में होने वाली नाना अवस्थाए पर्याय कहलाती है। समस्त विचारो की प्रवृत्ति या तो द्रव्य के द्वारा या पर्याय के द्वारा होती है, अतएव मूलभूत दो ही है । द्रच नित्य है, अतएव नित्यता को ग्रहण करनेवाला नय द्रव्यार्थिक नय कहताता है। १. से कि तं गए ? ततमूलणया पणत्ता अनुयोगद्वार नयद्वारम,
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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