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________________ जैन धर्म अनासक्ति और साथ ही श्रात्मनिष्ठा अपेक्षित है । ऐसा साधक अपने विराट् चैतन्यम्वरूप को प्राप्त करना ही अपना एकमात्र व्येय मानता है । जैनशास्त्र साधक - जीवन की अनासक्ति को यो प्रकट करते है. - 'अवि अप्पणो विदेहमि, नायरति समाइय ।' ससार के अन्य पदार्थों की बात तो दूर रही, साधक का अपने शरीर पर भी ममभाव नही रहता । वह ग्रन्त स्थ होकर स्वरूपरमण मे ही लीन रहता है । इसी कारण सयमी साधक को ग्रविपाक निर्जरा का अमूल्य तत्त्व प्राप्त होता है, जिसके बल पर वह कोटि-कोटि कर्मों को क्षण भर मे फल भोगे बिना ही भस्म कर देता है । ग्रडोल ग्रकम्प सावक जगत् में रहता हुआ भी, जगत् से और देह मे रहता हुआ भी देह से ऐसा ग्रलिप्त रहता है जैसे कीचड़, पानी, और आग मे पडा हुआ सोना अपने स्वरूप मे शुद्ध बना रहता है । अलिप्त भाव से किया हुआ तपश्चरण कर्मसघात पर ऐसा प्रहार करता है कि वह जर्जरित होकर ग्रात्मा से पृथक् हो जाते है । जैन परिभाषा में इसे 'सकाम' निर्जरा कहते हैं | ८८ विवश होकर, हाय-हाय करते हुए भी कर्म भोगे जाते हैं, और फल देने के बाद वे निर्जीव हो जाते है । वह ग्रकाम निर्जरा है । साधारण ससारी प्राणी प्रकामनिर्जरा द्वारा ही कर्मों को जीर्ण करते है, परन्तु ऐसा करते-करते वे और अधिक नवीन कर्म उपार्जन कर लेते है, जिससे उन्हें मुक्ति नही मिल पाती | अभिप्राय यह है कि इच्छापूर्वक समभाव से कष्ट सहना, सकाम निर्जरा, और ग्रनिच्छापूर्वक व्याकुल एव अशान्तभाव से कष्ट भोगना, अकामनिर्जरा है । बन्ध - ग्रात्मा के साथ, दूध-पानी की भाँति, कर्मो का मिल जाना, वन्ध कहलाता है । किन वृत्तियो एवं प्रवृत्तियो से कर्मो का ग्राव होता है, यह हम देख चुके है, मगर प्रश्न यह है कि आत्मा के साथ कर्मो का वन्ध होता कैसे है ' ग्रात्मा रूपी और कर्म पुद्गल रूपी हैं । ग्ररूपी के साथ रूपी का वन्ध किस प्रकार सभव ·9 ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि यद्यपि आत्मा अपने स्वरूप से अरूपी है; तथापि ग्रनादि काल से कर्मबद्ध होने के कारण रूपी भी है । मोहग्रस्त १. स्यानांग, स्थान २, उद्देशा २, प्रज्ञापना पट २३, सू० ५ ।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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