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________________ महावीर द्वारा उपदिष्ट जीव की लाक्षणिक परिभाषा अतीव सुन्दर है - वे बोले - "जिस में उपयोग (शक्ति) हो वह जीव कहा जा सकता है" । लाख सिर पटकने पर भी विरोधी इस "उपयोग" को जीवातिरिक्त अन्य किसी द्रव्य में खोज कर न पा सके। यही "उपयोग" जीव का भाव लक्षण है - जो अन्य द्रव्यों में नहीं होता। आपेक्षिक क्रियाशील द्वितीय द्रव्य जड़ में संश्लेषण विश्लेषण द्वारा अनेक बार ऐसी चेष्टाएं दिखायी पड़ती हैं, जो . मानों निर्भाव क्रिया से कुछ विशेष कोटि की हों, किंतु (वास्तव में) जड़ द्रव्य में कहीं चेतन का "अनुभव" नहीं पाया जाता-अतः . उपयोग का नितांत अभाव रहता है। प्रेरणा पाने पर जड़, जीव की सी क्रियाएं करता है और जीव जड़ के साथ व्यवहार में मिलकर समस्त सृष्टि की रचना भी करता है, फिर भी ये दोनों एक दूसरे से भिन्न हैं एवं जड़ में कभी। उपयोग शक्ति का प्रादुर्भाव नहीं होता यह सत्य निभ्रांत है। आकाश,काल,धर्म, अधर्म द्रव्य स्वतः या परतः क्रियाशील न होने के कारण उपयोग शक्ति से वंचित हों तो यह स्वाभाविक ही है। _ "उपयोग" जीव के मन का निर्माण करता है, सुख दुख का अनुभव, इष्टानिष्ट का भाव सूक्ष्मतम देहधारी जीवों में भी होता है यह कथन, महावीर आज की यंत्र परिक्षा के सहस्रों वर्ष पूर्व कह गये थे.और महावीर, ही क्या भारतीय संस्कृति के अन्य निर्माताओं ने भी मुक्त कंठ से इस सिद्धांत को स्वीकार किया है।
SR No.010220
Book TitleJain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhkaransinh Bothra
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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