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________________ परिपूर्ण न होने पर भी हमें कहीं २ ये इंगित मिल सकते हैं कि चक्षुग्राह्य या अचग्राह्य, दृश्यमान या अदृश्यमान भिन्न २ स्कंधों के निर्माण के लिये भिन्न २ प्रणालियों में या संख्या में परमाणुओं के मिश्रण की आवश्यकता है। विशेष रीति से चक्षग्राह्य अथवा स्पर्शाह अथवा रसग्राह्य आदि स्कंध बनाने के लिये विशेष संख्या में परमाणुओं को विशेष रीति से संश्लिष्ट करने की आवश्यकता है । जीव विशेष के शरीर धारण के लिये भी (कीट पतंगादि, पृथ्वी जल वायु आदि, पशु पक्षी भादि व मानव या मानवाकार प्राणी आदि ) स्कंध विशेषों के संयोग की आवश्यकता है-यह उल्लेख स्पष्ट करता है कि अनुकूल संयोग उपस्थित कर किसी भी शरीर का निर्माण नैसर्गिक या प्रयोगिक प्रचेष्टाओं से संभावित हो सकता है। महावीर तो और भी अधिक गहरे उतरे और कह गये कि भिन्नर कोटि के विचार या भाव,मिन्नर कोटि के सूक्ष्म परमाणु स्कंधों पर प्रभाव डालते हैं एवं उनसे एक प्रकार के भाव स्कंधों कानिर्माण हो जाया करता है । जो व्योम में निराबोध होने वाले निरंतरके महापर्यटन में अपना भी अनिरुद्ध गति युक्त केवल मात्र भाव ग्राह्य स्थान अक्षण रखते हैं । पराश्रयी भावों-क्रोध, मान, मोह,दुख,हास्य आदि से लेकर सर्व प्रकार के सूक्ष्म स्थल स्वप्रभावी या पर प्रभावी भावों (जो स्वतः पुदगल प्रेरित होते हैं) के व्यवहार तभी संभव हैं जब विशेष कोटि के स्कंधों की उपलब्धि सरल या संभव हो एवं वैसे उपयोगों के परिणाम के समय भी तद, प्रकार के नवीन स्कंधों की उत्पत्ति होती रहे।
SR No.010220
Book TitleJain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhkaransinh Bothra
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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