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________________ ( ४१ ) यो प्रसङ्गवस उनमें हेर फेर होता है, द्वयणुक स्कन्धसे अनंताणुक स्कंध को उत्पत्ति का क्रम क्या है, स्कंध से स्कंध का संश्लेषण किन कारणों से सार्थक होता है एवं किन कारणों से वह संबंध कब तक अक्षुण्ण रहता है तथा क्रमशः अवधि समाप्त होने पर या संयोग प्राबल्य से क्यों वह संबंव छूट जाता है-आदि को लेकर जो विचार कण महावीर के साहित्य में इतस्ततः बिखरे पड़े हैं उनको कोई मेधावी एकत्रित कर मनन करके को उद्यत हो तो जिस सत्य का सद्भाव सभव हो सकता है उसे स्पष्ट कर मानव को आश्चर्याभिभूत हो जाना पड़ेगा। , कृत्रिम व नैसर्गिक संयोग उत्पन्न हो सकते हैं व होते हैं, एवं स्कंध विशेष में आबद्ध परमाणुओं के कक्ष को भेद कर परमाणु या परमाणुओं को पृथक कर सकते हैं और तदुपरांत नव निर्माण के लिये सुगमता होसकती है-यह सत्यभो अनुल्लिखित नहीं रहा है । तद विषयक, विनष्ट प्राय जैन साहित्य में भग्नमुक्त-माला की तरह, विज्ञान के विद्यत कण, अनावश्यक अनुपयोगी रूदिन सत व्यवहार साहित्य के घनीभूत अधकार से अच्छादित हो, न जाने कब किस काल में तिरोहित हो गये यह कोई नहीं कह सकता । प्रयोग साहित्य को किस की अपरिपक्व अदूरदर्शी मेधा से आहत हो विनष्ट हो जाना पड़ा-यहां इसका विवेचन करने का उपयुक्त समय नहीं है, पर जो कुछ अवशिष्ट है उसके सारभूत तत्वों को केवल पाश्चात्य विद्वान ही उपयोग में लासके एवं हमारी बुद्धि उसको ग्राह्य करने में लड़खड़ती रहे-यह अत्यंत दुख एवं लज्जा को बात है।
SR No.010220
Book TitleJain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhkaransinh Bothra
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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