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________________ ( ३३ मात्र बाह्याडम्बर को प्रधानता देकर आत्म ज्ञान के पथ को सदा लिये सद्ध करने का अपराध करने वाले कापुरुषों के कुसाहित्य का ही आज प्रचार रह गया है - यह देख किसको ग्लानि नहीं होती । महावीर के नियम युक्त्यानुयायी व अकाट्य होते थे । उनका कहना था कि " स्थिति विशेष (परिशुद्ध) में पहुँचने के पूर्व क्रोध की, मान की, विश्वास की, व्यवहार की, विचार की अन्तर भाव धारा परिष्कृत होती हुई, सघन पार्वतीय वन-प्रांत की तरह उत्कट विपम उपत्यकाको अतिक्रम करने के बाद, सुरभित सुरम्य हारीत पल्लव राशियों के समान सहिष्णुता, समानता, करुणा व आत्मबोध के बीच मन्दस्थिर गति से अग्रसर होती है । कहीं कोई भेद नहीं, रोक नहीं अपेक्षा नहीं, सबके लिये समान भाषसे सदा ये नियम लागू होते हैं । कुत्सित कईम के सर्वथा विलुप्त होने पर ही जिस तरह स्वच्छ, स्फीत, शुद्ध व गुणकारी जल राशि का प्रशांत प्रवाह, सम्भव है, उसी तरह वासना उद्वेग, स्वार्थ कपट, प्रमाद, लोलुप्य, 'कोध एवं मोहादि भाव विकृतियों के सर्वथा तिरोहित होने पर ही आत्मा की निर्मल, सौम्य, प्रशांत, गम्भीर ज्ञान धारा ज्ञेय पदार्थों के अन्तर बाह्य को अनावृत कर संख्यातीत श्रेणियों में अनागत के कक्ष को भेदते हुये अव्याबाध गति से प्रवाहित होती रहती है । महावीर ने किसी के लिये भी नियम का उल्लंघन कर प्रगति-पथआरोहण सम्भव या सुलभ नहीं माना, तभी वे यह कह गये, "सब 'के लिये हर काल में एक ही व्यवस्था है"।, 11 कर्म श्रेणियों में " आयुष्य कर्म " की धारणा - महावीर की अद्भुत देन है । जीव, नया भव धारण करने के पूर्व अपनी वर्तमान की 7
SR No.010220
Book TitleJain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhkaransinh Bothra
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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